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#मिच्छामी_दुक्कड़म••

#मिच्छामी_दुक्कड़म••

“क्षमा” – लिखना कठिन है, बोलना और भी कठिन है, अनुभूत करना इससे भी अधिक कठिन है और कर पाना सबसे कठिन है।

व्यवहारिक धरातल पर जब हम जीवन की चुनौतियों से जूझ रहे होते हैं, उस समय स्थितप्रज्ञ रहकर विपरीत परिस्थितियों में अपनी सहजता को अक्षुण्ण रखना बेहद दूभर होता है। कई बार आपकी क्षमाशीलता को आपकी दुर्बलता समझ कर विपरीत पक्ष आपको प्रतिक्रिया हेतु विवश करता है।

ज्ञानी कहते हैं कि सामने वाला कुछ भी करे, आपको क्षमाशील बने रहना है। किन्तु मेरा मत है कि मनुष्य ने जितने भी संबंध निर्मित किये हैं, उनमें “क्षमा” का संबंध एक ऐसा संबंध है जिसका द्विपक्षीय होना अपरिहार्य है। यदि दूसरा पक्ष क्षमा के सूत्र में बंधने को तैयार न हो, और हम इकतरफा क्षमा करते रहें तो धीरे-धीरे क्षमा करने वाले व्यक्ति में स्वयं के महान होने का सूक्ष्म अहंकार जन्म लेने लगता है। इसके जन्मते ही वह दूसरे को पहले मूर्ख और फिर तुच्छ समझने लगता है। और आगे बढ़ने पर घृणा जन्म लेती है, और अंततः स्थिति पुनः कटुता की ओर बढ़ जाती है। इसलिए क्षमा के संबंध को साधना है तो इकतरफा निबाह से काम नहीं चल सकता।

साँप के काटने पर अहिंसक रहने वाले तथागत का उदाहरण हमें याद रखना चाहिए किन्तु सौ गालियाँ देने वाले शिशुपाल का उदाहरण भी हमें नहीं बिसारना चाहिए। यह केवल अपने लिए ही आवश्यक नहीं है, अपितु “क्षमाभाव” के वैभव हेतु भी अपरिहार्य है। यदि थोड़ा सा ध्यान करेंगे तो हमें ऐसी परिस्थितियों के अनेक उदाहरण अपनी ही ज़िन्दगी के आसपास मिल जाएंगे।

जिस शस्त्र से शत्रु को परास्त करना हो, उसकी साधना और उसकी पड़ताल बेहद आवश्यक हैं। हमने ‘मुआफ़ी’; ‘SORRY’; ‘क्षमा’ जैसे शब्दों को इतना बेमआनी बना कर रख दिया है कि न तो बोलने वाले को इससे कोई फ़र्क़ पड़ता है, न ही सुनने वाले को।

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