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क्या Article 15 के बाद भी गैर बराबरी जीवित है?

भारत का संविधान आर्टिकल 15 , संविधान का वह अंश है जो हमें बराबरी का अधिकार देता है। हम सभी को एक ही तरह, एक ही जगह से अपनी बात रखने का अधिकार देता है। हालांकि इसके बाकी क्लॉज को अपवाद के रूप में देखा जा सकता है, पर वे भी असमानता को समाप्त करने के लिए ही बनाए गए हैं।

क्या कहता है संविधान का आर्टिकल 15 ?

संविधान का आर्टिकल 15 भारत के नागरिकों से समानता की बात कहता है। इस धारा की अगर बात की जाए तो यह सीधे-सीधे यह कहता है कि हम सब भारतीय समान है। इसलिए किसी भी आधार पर भेदभाव करना कानूनन गलत है। संविधान के इस खूबसूरत धारा में निम्न बातें कहीं गई है।

भारतीय संविधान में सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के मौलिक अधिकार दिए गए हैं। इन अधिकारों का उद्देश्य है कि हर नागरिक सम्मान के साथ अपना जीवन व्यापन कर सके और किसी के साथ किसी आधार पर भेदभाव न हो

आसान शब्दों में समझा जाए तो देश का संविधान हमें अधिकार देता है कि हम अपनी ज़िन्दगी अपने तरीके से जी सकते हैं। संविधान की बहुत सी विशेषताओं में से एक है कि इसमें सभी को बराबर अधिकार है।

इसके मुताबित ना कोई ऊँचा है ना कोई नीचा, ना कोई छोटा है ना कोई बड़ा। सभी को समान अधिकार हैं और अगर बात दलित वर्ग की करें तो उन्हें कुछ विशेष अधिकार भी हैं ताकि सदियों से चली आ रही गैर बराबरी खत्म की जा सके।

क्या विशेष अधिकारों के मिलने से बदलाव आया ?

विशेष अधिकार मिलने से कुछ हद तक बदलाव तो हुए हैं पर ज़मीनी स्तर की बात करें तो यह कह पाना मुश्किल होगा कि समाज में गैर बराबरी की चली आई प्रथा पर अंकुश लग गया है। इसे समझने के लिए हालहीं में हुई कुछ घटनाओं पर नज़र डालते हैं।

और ना जाने कितनी ऐसी घटनाएं हर दिन होती हैं। ये वे घटनाएं हैं जो कुछ संगठनों की आवाज़ उठाने या कुछ राजनीति लालसा रखने वाले नेताओं की वजह से मीडिया में आ जाती हैं।

क्या कहते हैं आंकड़ें?

NCRB (National Crime Records Bureau) की रिपोर्ट के अनुसार हर साल एससी एसटी एट्रोसिटीज़ के लगभग 40-45 हज़ार केस दर्ज किये जाते हैं।

यानि हर दिन लगभग 123 दलितों को प्रताड़ित किया जाता है या कहें कि 5 से 6 दलितों को हर घंटे प्रताड़ित किए जाने के मामले सामने आते हैं। ये वे केस हैं जो दर्ज़ करा दिए गए या यूं कहें कि उन जगहों पर प्रशासन ने उनकी फरियाद को सुन कर उनका केस दर्ज कर लिया। आज भी हज़ारो केस ऐसे हैं जिन्हें कुछ दबंगो की वजह से तो कभी तुच्छ मानसिकता के लोगों का प्रशासन में होने की वजह से दर्ज नहीं किया जाता है।

अभी केरल की एक घटना ने मानवता को एक बार से शर्मसार कर दिया जहां एक 46 वर्षीय दलित व्यक्ति की शव यात्रा को स्थानीय उच्च-जाति समुदाय द्वारा रास्ता नहीं दिया गया।

शव को अंतिम संस्कार के लिए श्मशान घाट ले जाया जाना था लेकिन उच्च समुदाय के कुछ लोगों की ज़मीन रास्ते में पड़ती है। इस वजह से दलित व्यक्ति के शव को लोग मुख्य रास्ते से नहीं ले जा पाए और श्मशान घाट पहुंचने के लिए 20 फीट ऊंचे पुल का इस्तेमाल करना पड़ा, जहां नदी के ऊपर बने इस पुल से शव को लटकाकर नीचे उतारा गया।

अनुसूचित जाति-जनजाति कानून को मज़बूत करने की मांग के लिए दलित संगठनों के एक राष्ट्रीय गठबंधन का कहना है,

देश में औसतन हर 15 मिनट में चार दलितों और आदिवासियों के साथ ज़्यादती की जाती है। रोज़ाना 3 दलित महिलाओं के साथ बलात्कार किया जाता है, 11 दलितों की पिटाई होती है, हर हफ्ते 13 दलितों की हत्या कर दी जाती है, 5 दलित घरों को आग के हवाले कर दिया जाता है और 6 दलितों का अपहरण कर लिया जाता है।

इस  संगठन  का यह भी कहना है की पिछले 15 बरसों में दलितों के खिलाफ ज्यत्ति के पांच लाख से ज्यादा मामले दर्ज किये गए है, कुल मिलकर 1.5 करोड़ दलित और आदिवासी प्रभावित हुए हैं।

हमारे पास कानून व्यवस्था है, कानून का पालन ना करने वालों के लिए सज़ा का प्रावधान है लेकिन फिर भी इस तरह की घटनाओं का होना दिल व्याकुल कर देता है।

यह दर्शाता है कि आज भी इन समुदाय के लोगों को उनका हक देने के लिए कोई सरकार सक्रिय नहीं दिखाई पड़ती है। आज भी दलित समुदाय दोहरी ज़िन्दगी जीते हैं। हिन्दू मुस्लिम दंगो में उन्हें हिन्दू कह कर मरवाया जाता है लेकिन जब वही हिन्दू, हिन्दुओं के भगवान की आराधना करने के लिए उनके दर पर जाते है तो शूद्र बता कर उन्हें धिक्कारा जाता है।

सरकार और उच्चतम न्यायालय

सरकारें हर बार बदलती हैं पर अत्याचार के ये आंकड़ें हमेशा स्थिर रहे हैं। क्या देश बदल रहा है? अगर देश बदल रहा है तो दलित आदिवासियों के हालात क्यों नहीं?

इन हालातों के बाद भी सुप्रीम कोर्ट ने 1989  में बने एससी/एसटी एक्ट में बड़े बदलाव करके घृणित मानसिकता वाले लोगों की हिम्मत को और बढ़ावा दिया जिससे दलितों में क्रोध पैदा हुआ और इसे लेकर 2 अप्रैल को लाखों दलित ज़मीन पर उतर आए और आंदोलन किए।

इस आंदोलन को भारत बंद का नाम दिया गया। इस आंदोलन में कई लोगों की मौत भी हुई और बाद में सरकार ने इस पर अध्यादेश लाकर एससी/एसटी एक्ट को सुरक्षित किया। पर क्या सच में इन बदलावों की आवश्यकता थी?

सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च को फैसला सुनाया तभी सरकार ने उस पर रिव्यू पेटीशन क्यों नहीं लगाई? क्यों उस वक्त देश के 84 अनुसूचित जाति और 47 अनुसूचित जनजाति के सांसद जो संसद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के समुदाय की आवाज़ बन कर, उनका पक्ष रखने के लिए चुने गए हैं, क्यों चुप रहे ?

सरकार का इस तरह का रवैया और सुप्रीम कोर्ट के इस तरह के फैसले कहीं ना कहीं इन समुदाय के लोगों को मजबूर करते हैं कि वे उसी अनैतिक अमानवीय व्यवस्था में ज़िन्दगी व्यापन करे, जहां वे हज़ारो सालों से पिसते आए हैं।

आज़ादी के 70 साल बाद आज भी यह कहना गलत नहीं होगा कि समाजिक और आर्थिक बराबरी के मामले में दलित वर्ग दूर-दूर तक आज भी  पिछड़ा हुआ दिखाई पड़ता है। सामाजिक बराबरी के लिए संविधान की किताब में आर्टिकल 15 तो है, पर ज़मीन पर उसका अस्तित्व आज भी ढूंढ़ना आसान नहीं।

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