काजल की कोठरी में कैसो ही सयानो जाय एक लीक काजल की लागे है तो लागे है
उक्त कहावत आज के राजनैतिक दौर में बेदागी के मामले में एकदम सत्य साबित हो गई है। उभरते नव राष्ट्रवाद के युग में काजल रूपी राजनीति में बेदाग बने रहना अखंड भारत में एक चुनौती के समान हो गई है।
आज कोई भी व्यक्ति अगर दोनों आंखे बंद करके भी किसी राजनेता की तरफ उंगली उठाएगा, तो अमूमन नेता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी ना किसी आरोप में संलिप्त ज़रूर होगा।
पी चिदंबरम जैसे कई नेताओं पर है भ्रष्टाचार के आरोप
हाल ही में काँग्रेस के दिग्गज नेता, पूर्व गृहमंत्री तथा वित्तमंत्री पी. चिदंबरम पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे और कथित भ्रष्टाचार के मामले में उनको सीबीआई ने हिरासत में ले लिया।
उपरोक्त जैसे आरोप चिदंबरम पर ही नहीं बल्कि हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा, देश के दिग्गज नेताओं में शुमार शरद पवार तथा पवार के करीबी प्रफुल्ल पटेल और पक्ष-विपक्ष के तमाम नेताओं पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगभग तय हैं।
अगर आप उक्त को एक दूसरे नज़रिये से देखें तो सीबीआई तथा ईडी का येन-केन प्रकारेण सत्ता पक्ष के राजनेताओं की तुलना में विपक्ष की तरफ से आवाज़ उठाने वाले नेताओं पर अधिक कड़क है। जिसके चलते अधिकांशतः विपक्षी दल के भ्रष्ट नेता सत्ता पक्ष का दामन थाम कर एक सुकून की राहत महसूस कर रहे हैं।
दागी जन-प्रतिनिधि कैसे दिलाएंगे न्याय?
इससे सत्ता पक्ष के प्रति एक संशय का माहौल इस राजनीतिक पटल पर व्याप्त हो गया है। इन संशयों के भय से विपक्ष के कई सजग युवा सांसद तथा प्रशानिक अधिकारी अपनी आवाज़ को बुलंद नहीं कर पा रहे हैं, जिसका जीता जागता उदाहरण केरल के IAS अधिकारी हैं जिन्होंने अपने पद से परित्याग कर दिया है।
हालांकि उपर्युक्त के इतर राजनीति में दागी होने का एक और प्रमुख कारण है। वर्तमान समय में हमारे पार्लियामेंट में क्रिमनल सांसदों की संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। लोकसभा चुनाव 2019 में देखा गया है कि 43% सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज़ हैं। इनमें से कई पर तो आतंकवाद, हत्या, दुष्कर्म जैसे गंभीर आरोपों पर मामले दर्ज़ किए गए हैं।
इन्हीं चुनावों के दौरान एडीआर की रिपोर्ट भी ऐसा ही कुछ खुलासा करती है।
इस रिपोर्ट ने नवनिर्वाचित 542 सांसदों में से 539 सांसदों के हलफनामों के विश्लेषण के आधार पर यह बताया कि इनमें से 159 सांसदों (29 फीसदी) के खिलाफ हत्या, हत्या के प्रयास, बलात्कार और अपहरण जैसे गंभीर आपराधिक मामले लंबित हैं।
इन खुलासों से यह कहना गलत नहीं होगा कि संसद में हर एक दूसरा-तीसरा सांसद क्रिमनल है। जब हमारे कानून को संशोधित या पारित करने वाले जन-प्रतिनिधि ही दागी होंगे तो उक्त प्रतिनिधियों द्वारा कैसे किसी को न्याय मिल सकता है?
जनता की भी है गलती
विचारणीय तथ्य यह है कि आरोपित सांसदों को सदन तक पहुंचाने का काम जनता ने भी बखूबी निभाया है। लोकतंत्र में जब अपराधी प्रवृत्ति के जनों को आम जनमानस का समर्थन पाने में सफलता प्राप्त हो जाती है, तो दोष मतदाताओं का नहीं वरन उस राजनैतिक संग सामाजिक माहौल का होता है, जिसने मतदाताओं को भ्रष्ट वातावरण के सिक्के में ढलने पर मजबूर कर दिया है।
भविष्य में अगर जनता अपराधियों के षड्यंत्र में आकर चुनावों में किसी आपराधिक सांसद या विधायक उम्मीदवार को चुनती है, तो यह देश का दुर्भाग्य ही होगा। अगर समय रहते जनता उनके प्रति सजग नहीं हुई तो शायद ही कोई राजनेता बेदाग हो पाए क्योंकि किसी भी आपराधिक प्रवृत्ति के सांसद का सदन में वर्चस्व बढ़ना कैंसर की तरह है जिसका इलाज होना ज़रूरी है।
इस कैंसर रूपी महामारी से मुक्ति मिलने पर ही हमारा लोकतंत्र पवित्र एवं सशक्त बन सकेगा। सत्ता की चौड़ी गलियों में दागी, अपराधी एवं चापलूस जनों की अधिकता होना देश की गरिमा पर कहीं ना कहीं सवालिया निशान उठा सकती है।
एन एन वोहरा की रिपोर्ट
सर्वविदित है कि 5 दिसंबर 1993 को तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव एन एन वोहरा ने अपनी रिपोर्ट गृहमंत्री को सौंपी थी। वोहरा समिति ने आपराधिक गिरोहों, गुंडो और माफियों जैसे अनैच्छिक तत्वों के साथ राजनीति का कोई ना कोई पहरेदार का जुड़े होने का दावा किया था। ऐसी रिपोर्ट शायद 1993 से अभी तक बंद अलमारी में धूल ही खा रही है।
हालांकि चुनावों के पहले प्रत्येक दल उस रिपोर्ट को जनता के सामने प्रस्तुत करने को कहता है किंतु चुनावी ताज पहनने के बाद संबंधित दल उस रिपोर्ट में अपनों के नाम होने से उसको सार्वजनिक नहीं कर पाता है। इससे कोई भी दल अछूता नहीं है।
नेता कभी किसी कारखाने में पैदा नहीं किए जाते हैं बल्कि या तो वे समाज में ही रहकर वहां की कुरीतियों व अपराधों को सहकर पनपते हैं या किसी भी राजनेता को आदर्श मानकर उस जैसा नेता बनना चाहते हैं।
जहां तक बेदाग होने की बात आती है, तो नवनेता बनने वाला युवा अगर लोकतांत्रिक रूप से उपरोक्त जैसे अपराधों की खिलाफत करते हैं, तो भविष्य में वे 80 फीसदी बेदाग बने रह सकते है लेकिन अगर उक्त के विपरीत खिलाफत करता है तो बेदाग रह पाना काफी मुश्किल होगा।
अभी हाल ही में राज्यपाल सत्यपाल मलिक द्वारा बयान दिया गया कि राजनीति में नेता बनने हेतु जेल में जाना आवश्यक है और स्वयं की उपलब्धि के तौर पर उन्होंने बताया भी कि वे लगभग 30 बार जेल जा चुके है। इससे कहीं ना कहीं लोकतांत्रिक राजनीति के करियर को अपराधों की बंदिशों में जकड़ दिया है जिससे किसी भी नव राजनेता को बेदाग हो पाना एक अपने आप में बड़ी चुनोती है।
शिक्षा भी राजनीति में बेदाग बने रहने में अहम योगदान रखती है। शिक्षा ही एक ऐसी कड़ी है, जो राजनीति में समस्त विशाक्त तत्वों को जड़ से उखाड़ सकती है तथा बेदाग बने रहने की चुनौती को आसान कर सकती है। शिक्षा के रास्ते से ही मतदाताओं को इतना जागरूक बनाया जा सकता है कि वे खुद ही आपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों को नकार दे।
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नोट- यह लेख लेखक द्वारा नवभारत टाइम्स ब्लॉग पर प्रकाशित हो चुका है।