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सरदार सरोवर बांध के कारण 32 हज़ार परिवार बेघर होने को मजबूर

फोटो साभार- Twitter

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नर्मदा घाटी में रहने वाली रंजना बाई का घर पानी में घिर चुका है लेकिन रंजना अपने डूबते हुए घर को छोड़कर नहीं निकलना चाहती हैं। उनका गाँव खापरखेड़ा सरदार सरोवर बांध की चपेट में आ गया है और अब पूरी तरह डूब रहा है।

नर्मदा किनारे ऐसे सैकड़ों गाँव अब डूबने की कगार पर पहुंच चुके हैं। जब से सरदार सरोवर बांध का जलस्तर 134 मीटर पहुंचा है, लोगों के घरों में पानी घूसने लगा है। करीब 32 हज़ार परिवार अपने घर और गाँव को छोड़ने के लिए मजबूर हो रहे हैं। हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की माने तो यह ऐतिहासिक है और इससे इस क्षेत्र में पर्यटन के अवसर खुल गए हैं।

लेकिन सरदार सोरवर बांध का करीब तीन दशक से ज़्यादा समय से विरोध कर रहे ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ की माने तो इससे लाखों लोग बेघर होने को मजबूर हो गए हैं। सबसे विकट समस्या यह है कि विस्थापित लोगों में से ज़्यादातर को पुर्नवासित नहीं किया जा सका है।

फोटो साभार- pixabay

रंजना बाई बताती हैं कि जहां उन्होंने अपनी ज़िन्दगी बिताई, उस घर को सरदार सरोवर ने खुद में समा लिया। उनका कहना है कि उनको आज तक मकान बनाने के लिए पुनर्वास का लाभ नहीं दिया गया। जब रंजाना बाई के पति भूअर्जन कार्यालय में अधिकारियों के पास गए, तब उन्हें यह कह दिया गया कि शासकीय कर्मचारी होने की वजह से आप यह लाभ नहीं ले पाएंगे। जबकि रंजना बाई के पति हीरा लाल जी का कहना है कि वह शासकीय कर्मचारी हैं ही नहीं।

पिछले हफ्ते खापरखेड़ गाँव, ज़िला धार के ही प्रवीण विश्वकर्मा ने सरदार सरोवर डैम में कूद कर जान देने की कोशिश की। नर्मदा बचाओ आंदोलन का आरोप है कि जिस पुर्नवास बस्ती में उसको जगह दी गई, वहां पीने तक का पानी नहीं है। तमाम असुविधाओं और अपने घर-गाँव से विस्थापित होकर प्रवीण ने अपनी जान ही देने का फैसला कर लिया।

हालांकि उसे बचा लिया गया और अब वह आईसीयू में है। ऐसी घटनाएं बताती हैं कि विकास से विस्थापन का सिर्फ आर्थिक पहलू ही नहीं है, बल्कि उसका एक मानवीय पहलू भी है जिसको सरकार नज़रअंदाज़ करती है।

दशकों से इस इलाके में सक्रिय समाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर को अभी अगस्त में एक बार फिर नर्मदा चुनौती सत्याग्रह शुरू करना पड़ा। करीब नौ दिनों तक वह और उनके तमाम साथी अनशन पर बैठे रहे। बाद में मध्यप्रदेश सरकार की तरफ से आश्वासन मिलने के बाद उन्होंने अपना अनशन तोड़ा

फोटो साभार- अविनाश चंचल

फिलहाल नर्मदा बचाओ आंदोलन की यह मांग है कि जब तक सभी प्रभावितों का पुर्नवास ना हो जाए, तब तक बांध की ऊंचाई ना बढ़ाई जाए। उनका कहना है कि घाटी में आज 32,000 परिवार निवासरत हैं और ऐसी स्थिति में बांध में 138.68 मीटर पानी भरने से 192 गाँव और 1 नगर  की जल हत्या होगी।

हज़ारों परिवारों का सम्पूर्ण पुनर्वास भी मध्य प्रदेश में अधूरा है। पुनर्वास स्थलों पर नीति आनुसार सुविधाएं नही हैं। ऐसे में विस्थापित अपने मूल गाँव में खेती और आजीविका को डूबते देख संघर्ष कर रहे हैं।

बांध के दुष्परिणाम

पिछले पखावड़े से नर्मदा घाटी के साकड़-हरिबड़ क्षेत्र में लगातार भूकंप के झटके आ रहे हैं। अब भूकंप की तीव्रता और प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि होने से इंकार नहीं किया जा सकता है। जलाशय में पानी रुकने से जल जनित और मच्छरों से फैलने वाली बीमारियां तेज़ी से फैल रही हैं।

स्थानीय अस्पतालों के आंकड़ों के अनुसार ओपीडी मरीजों की संख्या में 3 गुना तक बढ़त दर्ज़ की गई है। इसके अलावा जलाशय का जल प्रदूषित होने से आज छोटा बड़दा में कई मछलियां मरी हुई दिखाई देती हैं।

पुनर्वास संबंधित मुद्दों पर काम की गति बहुत सुस्त है। आंदोलन कर्मियों ने आरोप लगाया है कि पिछले 15 सालों में काफी गड़बड़ी, धांधली, झूठी रिपोर्ट और भ्रष्टाचार देखने को मिली है। आज भी दुर्भाग्य से भ्रष्टाचारियों को रोका नहीं गया है। पूर्व शासन द्वारा सर्वोच्च या उच्च अदालत में प्रस्तुत याचिकाएं वापस करने के आश्वासनों की पूर्ति आज तक नहीं हुई है ।

सरदार सरोवर बांध की वजह से आज उस इलाके का पूरा इकॉलोजी खतरे में पड़ गया है। हज़ारों पेड़ और छोटी नदियों का अस्तित्व खतरे में है।

आज ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ आज़ादी के बाद शुरू अहिंसक आंदोलनों में सबसे लंबा चलने वाला आंदोलन बन चुका है। इस आंदोलन का ही नतीजा है कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़े बांधों को बनाने वाली विकास की पूरी धारणा को चुनौती मिली है। दुनिया भर में विकास के इस मॉडल पर सवाल उठ रहे हैं, जो खेतों, जंगलों, पेड़ों, गाँवों, लोगों, नदियों और जीवन को खत्म करके अपनाया जा रहा है।

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