बदन पर ढीला-ढाला कमीज़
आगे की तरफ झुकी हुई पीठ
पीठ पर लदा हुआ उनका बोरा
बोरे में टन-टन की आवाज़ करती बोतल
काले पड़े नंगे और कटे-फटे पांव
और हाथ में एक लोहे की टेढ़ी-मेढ़ी छड़
लिए फिरते रहते हैं चौराहे के आस-पास
चौराहे पर सिग्नल की लाल बत्ती देख,
गाड़ियों की तरफ दौड़ जाते हैं वे,
आस लगाए मांग रहे हैं, हर एक से सिक्का
कुछ लोग उनसे अपनी नज़रे चुरा रहे हैं
तो कुछ लोग अपनी मजबूरी जता रहे हैं
पर उन्हें पता है आसानी से नहीं मिलता,
सिक्का जिसकी उन्हें तलाश है
कर रहे होते हैं बार-बार प्रयास
हर किसी के पास जा जाकर
पसीज जाता है जिनका सीना
वे दे देते उन्हें सिक्का एक दो
पर कुछ बेगैरत ऐसे भी रुकते हैं सिग्नल पर
चोर-चकार की संज्ञा देकर बेचारों को डांट लगा देते हैं
दूर से ही भागा देते हैं उन्हें अपने पास से
इन बदनसीबों की नसीब कहां है
कि कोई इन्हें भी प्यार दे
प्यार से इन्हें सम्बोधित करे
इनको तो इतना भी नहीं पता
कि माँ का प्यार क्या होता है
लोरी कैसी होती है
बस्ता स्कूल का कैसा होता है
तख्ती कैसी होती
इन्हें कहां पता
चाँद इन अभागों का भी मामा है
नहीं पता कि मातृ छाया क्या होती है
माँ और माँ के प्यार के तरसे,
तरस रहे हैं सिग्नल पर एक-एक सिक्के को
भटक रहे हैं इधर-से-उधर नंगे पांव
पर हां, इन्हें इतना तो पता है
सिक्कों से ही रोटी मिलनी है
सिक्कों से ही इन्हें प्यार मिलना है
इनकी यह दुर्दशा देखकर
उठ जाते हैं मेरे मन में कई सवाल
इन सबकी बेबसी क्या है?
क्यों ये नन्हें मासूम हाथ फैला रहे हैं?
जिन हाथों में किताबें होनी थी
क्यों वे आज सिक्कों की तलाश में हैं?
क्यों इन्हें स्वीकारते नहीं हम
क्यों इनके बारे में सोचते नहीं हम
क्या इन्हें इज्ज़त से जीने का हक नहीं है
क्या यह भारत के भविष्य नहीं हैं?
यह कैसी समस्या है
जिसे हम आज भी नहीं सुलझा पाए
तो सिर्फ क्या
बाल अधिकार
शिक्षा अधिकार
मानव अधिकार
संविधान के पन्नों की
खूबसूरती बढ़ाने के लिए बने हैं?