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“मैं साइकिल वाला इको फ्रेंडली घुमक्कड़ हूं”

कभी पान-मसाले के विज्ञापन में, तो कभी यूं ही मज़ाक में किसी दोस्त को आपने कहते सुना होगा, “शौक बड़ी चीज़ है” लेकिन कैसा हो अगर आपका शौक ना सिर्फ आपके लिए बल्कि मदर नेचर के लिए खुशियों की वजह बन जाता हो।

मुझे बताया गया कि मेरा शौक भी कुछ ऐसा ही है। चलिए आपको मेरे इस शौक और इसकी शुरुआत की कहानी तफसील से बताता हूं। नाम तो आपने सुना ही होगा, जनाब मुझे राहुल कहते हैं (असली नाम भी वही है)।

मैं 32 साल का बिन ब्याहा, कॉर्पोरट में 10 से 6 की नौकरी करने वाला एक मिडिल क्लास लड़का, सॉरी पुरुष हूं। मुझे साइकिल चलाने का शौक है और मैं इसे ताउम्र बनाए रखना चाहता हूं।

राहुल।

पापा जी ने 6 साल की उम्र में साइकिल चलाना सिखा दिया था और फिर साइकिल से ऐसा प्यार हुआ, जैसा रोमियो को जूलिएट और रांझा को हीर से हुआ होगा। कुछ एक साल बाद लाख मिन्नतों और अच्छे नंबर लाने की शर्तों के बाद हरकुलिस की रेंजर साइकिल भी मिली लेकिन बारहवीं तक आते-आते साइकिल चलाना लगभग बंद हो गया।

बाकी दोस्त-यार बाइक और मोपेड इस्तेमाल करते थे और साइकिल को ना सिर्फ वे लोग बल्कि मैं भी स्टेटस के पायदान पर कमतर आंकने लगा था। वक्त बीता और लाखों युवाओं की तरह दिल्ली की ओर प्रस्थान हुआ। बस फिर क्या था, इस बड़े शहर की चकाचौंध ने दिमाग का सर्किट ही हिला दिया।

‘प्रूव यॉर सेल्फ एंड बिकम सक्सेसफुल’ टैग-लाइन ने लाइफ की ऐसी रेल बनाई कि साइकिल हो गई दिमाग से गायब और नौकरी की धक्कमपेल शुरू। साल ऐसे निकले जैसे कुछ महीने हो।

इसी बीच मैं 46 किलो के छोटे से स्लिम लड़के से 68 किलो को पेट बाहर वाला हट्टा-कट्टा लड़का बन चुका था। सिर एक अजीब से प्रेशर से हर वक्त भारी रहता। अक्सर लोगों से लाइफ के प्रेशर के बारे में डिबेट भी होती थी। एक दिन यूं ही अपने मनोवैज्ञानिक डॉक्टर दोस्त से भी इस मुद्दे पर चर्चा हुई तो उन्होंने हॉबी (शौक) जानने और उसे जीने की बात पर काफी ज़ोर दिया और बताया कि कैसे इंसान के शौक (यहां अच्छे शौकों की बात हो रही है) उन्हें पॉज़िटिव बनाते हैं और ज़िन्दगी को बेहतर ढंग से जीने में मदद करते हैं।

आमतौर पर हमारे लिए तो हॉबी listening to music and watching movies (वो भी सिर्फ रिज़्यूमे में लिखने लिए) था।

राहुल की साइकिल।

लेकिन वो कहते हैं ना ‘सच्चा प्यार और शौक कभी पूरी तरह मरते नहीं’। मेरा प्यार भी दिल में कहीं-ना-कहीं दबा था और उस दिन फटकर बाहर निकला, जब मैंने ऑफिस से पास वाली चाय की टपरी पर अधेड़ उम्र के एक अंकल को कहते हुआ सुना कि वो जवानी में 46 किलोमीटर दूर अपने स्कूल साइकिल पर जाया करते थे।

बस यही वह मौका था, जिसने मुझे इस बात का गहरा एहसास करा दिया कि मेरा शौक साइकिलिंग है और मुझे भी इसे दोबारा शुरू करना चाहिए। ऑफिस में भी एक जनाब कभी-कभी साइकिल पर आया करते थे, तो उन्हें देखकर और हिम्मत बढ़ी। बस यहीं से दोबारा परवान चढ़ा अपना शौक और शुरू हुआ साइकलिंग का नॉनस्टॉप सफर।

साइकिल टू ऑफिस

थोड़ी मार्केट रिसर्च और सोशल मीडिया साइकलिस्ट दोस्तों से सलाह मशवहरे के बाद मैंने एक हाइब्रिड साइकिल ले ली और ऑफिस आना जाना शुरू कर दिया (46 किलोमीटर आना और जाना मिलाकर)। कुछ लोगों के हास्य और घरवालों की नाराज़गी का सामना करना पड़ा, कुछ लोगों ने उत्साहवर्धन भी किया। कहीं दिल के किसी कोने में डर भी था लेकिन कुछ ज़ोश ने जज़्बा कम नहीं होने दिया।

दिल्ली की खतरनाक सड़कों पर साइकिल चलाने के जांबाज़ी वाले गुर मैंने सीखे साइकिल पर खाने का डब्बा बांधकर रोज़ाना का सफर करने वाले लोगों से। मैं रोज़ उन्हें ध्यान से देखता और सीखता कि कैसे रोड के किनारे सावधानी से चला जाए, कैसे बेपरवाह तेज़ रफ्तार गाड़ी चालकों से बचकर सफर पूरा किया जाए।

थोड़े ही वक्त में यह समझ गया था कि साइकिल चलाना मुझे बेहद खुशी देता है और समय बीतने के साथ मैं व्यस्त सड़कों पर साइकिल चलाने के लगभग सारे पैंतरे भी सीख चुका था। आज सात साल हो गए हैं और यह सफर जारी है। आज भी मैं हफ्ते से 2 से 3 दिन ऑफिस का सफर साइकिल से ही करता हूं।

साइकिल पर घुमक्कड़ी

अपनी पहाड़ यात्रा में राहुल। फोटो सोर्स-राहुल

एक बार जब साइकिल ने जीवन में दोबार एक खास जगह ले ही ली तो दिमाग में आया कि क्यों ना एक बार पहाड़ों पर भी साइकिल से सफर करके देखा जाए (मुझे पहाड़ों से बेहद लगाव है)।

साल 2017 में एक चाइनीज़ सहकर्मी, जो कि मेरी तरह घुमक्कड़ी का शौक रखता है को साथ शिमला से ओडी (नारकण्डा से रामपुर की और कुछ 15 किलोमीटर आगे) तक साइकिलिंग करने का निमंत्रण दिया। वह राज़ी हो गया और हमारी पहली साइकिल पर पहाड़ यात्रा पूरी हुई।

इस ट्रिप से काफी मनोबल मिला और इसके कुछ समय बाद अकेले ही पूरे लाहौल-स्पीति को साइकिल से घूमा (दुनिया का सबसे ऊंचा मोटरेबल गॉंव इसमें शामिल है)।

पहाड़ों पर साइकिल से यात्रा करना चुनौतियों भरा तो होता है लेकिन वहां के नज़ारे और सकारात्मक लोग कमाल का मनोबल देते हैं और आप शारीरिक तौर पर थके हाने के बाद भी रुकना नहीं चाहते हैं।

साइकिल पर घूमना अपने आप में एक नया अनुभव है। मैं हर साइकिलिंग ट्रिप के बाद और बेहतर ट्रैवलर बन पाता हूं और दुनिया घूमने की मेरी इच्छा और भी प्रबल होती जाती है।

हाल ही में कुमाऊ की साइकिल यात्रा भी पूरी हुई। अगला लक्ष्य बाल्टिक सी साइकिल रूट (Baltic Sea Cycle Route) करने का है। आशा करता हूं कि यह भी मैं कर पाऊं। सच बताऊं तो साइकिल से सारी दुनिया घूम लूं, ऐसी कामना है।

सलाह- पूरी तैयारी करें और खुद पर ही निर्भर रहें। जोश को होश के साथ मिलाएं और अंतआत्मा पर भरोसा करें।

साइकिल और सकारात्मकता

साइकिल चलाने के शौक ने मेरे जीवन में कई सकारात्मक बदलाव किए। जब कभी कोई टेंशन होती है, साइकिल पर निकल पड़ता हूं, इससे समाधान तो नहीं मिलता लेकिन सामाधान ढूंढने के लिए एक सकारात्मक ऊर्जा ज़रूर मिलती है। अकेले पहाडों में कई-कई हफ्ते साइकिल चलाकर भी कभी अकेला महसूस नहीं हुआ।

बल्कि सीखने को मिला कि जब हिम्मत जवाब देने लगे तो कैसे फिर से खड़े होकर सफर को जारी रखना है और मंज़िल तक पहुंचना है। साइकिल पर घूमना मेरे लिए पूरी तरह एक नया अनुभव रहा है। जैसा कि साइकिल एक अच्छा वर्कआउट भी है। मुझे इससे बेहतर मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य मिला है।

आज साइकिल चलाना मेरे लिए मेडिटेशन जैसा है। हर एक यात्रा मेरे लिए एक सीख की तरह है। साइकिल पर ट्रैवल करने के इस शौक ने मेरे जीवन को एक नई दिशा और कमाल का उत्साह दिया है। मुझे मेरे शौक पर गर्व है, क्योंकि इसने मुझे खुद से और प्रकृति से प्यार व सम्मान करना सिखाया है। मुझे एक बेहतर इंसान बनने की प्रेरणा दी है।

साइकिल, समाज और सुविधाएं

अपनी पहाड़ यात्रा में राहुल। फोटो सोर्स- राहुल

भारत में साइकिल को लेकर लोगों में मिली-जुली सोच देखने को मिली। दफ्तर हो, समाज या घर, कम ही लोग मिलते हैं, जो साइकिल को परिवहन के रूप में इस्तेमाल करना का समर्थन करते हों।

वहीं दूसरी और कुछ लोग (काफी कम संख्या में) ऐसे भी हैं जो आपका मनोबल बढ़ाते हैं और आपके शौक का सम्मान करते हैं। कई बार साइकिल को स्टेटस से जोड़कर भी देखा जाता है, जो दुख पहुंचाता है।

साइकिल का इस्तेमाल अधिकतर लोअर क्लास लोग ही करते हैं, वाली सोच समाज पर भारी है। शहर हो या दफ्तर, साइकिल चलाने और चलाने वालों के लिए सुविधाएं ना के बराबर हैं।

देश की राजधानी दिल्ली में भी साइकिल लेन या तो है ही नहीं और जहां हैं वे भी इस्तेमाल करने की हालत में नहीं हैं। ऑफिस में भी साइकिल फ्रेंडली माहौल कम ही देखने को मिलता है।

शहर की सड़कों पर साइकिल चलना खतरों से भरा है, क्योंकि लोग इसे लेकर सजग ही नहीं हैं। हालांकि कुछ बदलाव भी देखने को मिले हैं, सरकार ने मैट्रो के पास साइकिल रेंटल सुविधा शुरू की है। कुछ एक-आद लोगों ने सड़क पर साइकिल वालों को रास्ता देना भी शुरू किया है।

लोग तैयार हैं, बस ज़रूरत है तो जागरूकता और सकारात्मक सोच की। साइकिल या तो गरीब या फिर बेहद अमीर ही चलाता है कि सोच बदलने की ज़रूरत है। कैमरा लगाए, साइकिल कॉस्टूम पहने लाखों वाली साइकिल चलाने वाले कुछ चंद अमीर लोगों और हज़ारों हीरो और एटलस की 2-3 हज़ार की साइकिल चलाने वाले लोगों से अब साइकिल को मिडिल क्लास तक पहुंचाने की ज़रूरत है। सोच बदलेगी तो समाज भी बदलेगा। नीदरलैंड्स की तरह हम भी अपने शहर और लोगों को साइकिल फ्रैंडली बना सकते हैं।

अंधाधुंध भागती ज़िन्दगी से कभी कुछ मिनटों का एक ब्रेक लेकर ज़रूर सोचें कि आपकी हॉबी क्या है। उसे जिएं और अपने रिज़्यूम में गर्व के साथ लिखें भी। टटोलकर देखिएगा, आपका शौक वहीं कहीं आपके दिल के किसी कोने में दबककर बैठा है, बस इसे थोड़ी हवा देने की ज़रूरत है।

शौक ज़रूर रखें, अच्छा शौक रखें और शौक को खुलकर जिएं। बेशक हमारे शौक हमारी ज़िन्दगी को एक मकसद और बेहतर नज़रिया देते हैं। शौक बड़ी चीज़ है और शौक घुमक्कड़ी का हो तो बात ही क्या। हैप्पी वर्ल्ड टूरिज़्म डे टू ऑल।

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