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“गाँधी फेलो के तौर पर मैंने स्कूलों और ग्रामीणों के बीच सामंजस्य की कमी देखी”

फोटो साभार-

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शिक्षा का उद्देश्य नागरिकों को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से मज़बूत बनाना है ताकि वे आत्मविश्वास से किसी भी स्थिति का सामना कर सकें। इसलिए यह देखना महत्वपूर्ण होता है कि क्या इस देश के भविष्य के नागरिकों को खुद को एक बेहतर नागरिक के तौर पर स्थापित करने के लिए अच्छी देख भाल होती है या नहीं।

शिक्षा हमेशा मन की वांछित स्थिति की ओर इशारा करती है, जो स्टूडेंट्स और शिक्षकों के बीच नियोजन और निरंतर जुड़ाव की स्थिति को इंगित करता है। यह मन की वांछित स्थिति नैतिक व्यवहार, बौद्धिक क्षमता, प्रक्रिया करने और गुणवत्ता की क्षमता प्राप्त करने में उपलब्धियों का उल्लेख कर सकती है।

कुछ विचारकों के सिद्धांत

रूसो: रूसो के अनुसार, बच्चे को शिक्षित करने का एकमात्र तरीका यह है कि वे स्वयं के अनुभवों और व्यक्तिगत टिप्पणियों से सामाजिक और प्राकृतिक दुनिया में गर्मजोशी से सीखें। रूसो ने व्यक्तिगत शिक्षा के संदर्भ में स्टूडेंट्स और टीचर्स के संबंध पर ज़ोर दिया है।

उनके मुताबिक, शिक्षक को खुद को स्टूडेंट्स के लिए पूरी तरह से समर्पित करते हुए और उनके व्यक्तिगत स्नेह और दिलचस्पी पर ध्यान देना चाहिए। सिखाने का तरीका यह होना चाहिए कि बच्चे को कुछ सीखने के लिए उसे मजबूर ना किया जाए।

फोटो साभार- मोहम्मद हबीब

जॉन डूवी: जॉन डूवी का नाम शैक्षणिक जगत में “प्रगतिशील आंदोलन” से जुड़ा है। इन्होंने यह दृष्टिकोण प्रस्तुत किया कि शैक्षणिक प्रणाली में विकास की एक प्रक्रिया होनी चाहिए, जो हर समय खुद को नए ज्ञान और नए हालात के प्रकाश में बदलने के लिए तैयार रहे।

पाउलो फ्रेरे: फ्रेरे अकादमिक दर्शन के एक विचारक थे, जिनके शैक्षणिक दर्शन के पीछे मानव और इतिहास की एक अवधारणा है। इनके विचार में मनुष्य ही वह हस्ती है, जो अपने परिवेश पर कार्य करके उसको अपनी मर्ज़ी के मुताबिक लगातार बदलता रहता है और यह क्षमता हर इंसान में होती है, चाहे वह कितना भी पिछड़ा और अशिक्षित क्यों ना हो।

फ्रेरे के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य की क्षमताओं का पोषण करना होना चाहिए, जिसके माध्यम से वे दुनिया बदलते हुए एक बेहतर समाज की नींव रख सके। शिक्षा के इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए फ्रेरे ने “आलोचनात्मक सोच” की संज्ञा देते हुए एक शिक्षण तकनीक विकसित की, जिसके तहत अनपढ़ भी जल्द इस लायक हो जाते हैं ताकि उनमें दुनिया और समाज की समझ विकसित हो सके।

शिक्षा एक दोहरी प्रक्रिया है

हमें स्कूल के पाठ्यक्रम में यह देखना होगा कि बच्चों के समग्र अनुभवों के संदर्भ में उनके सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं को किस हद तक शामिल किया गया है। दूसरी ओर, स्कूल और सामुदायिक संबंध समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। इन्हीं दो पहलुओं के साथ, आदर्श शिक्षा अपनी शैक्षणिक क्षमता प्राप्त कर सकती है।

हम में से प्रत्येक का मानना है कि शिक्षा एक दोहरी प्रक्रिया है। शिक्षण कार्य को सीधे शिक्षण से संबंधित होने की ज़रूरत है। कई लोगों के लिए शैक्षणिक सामग्री प्रदान करना शिक्षा का हिस्सा है मगर यहां पर शिक्षक की भूमिका और भी महत्वपूर्ण होती है।

फोटो साभार- मोहम्मद हबीब

बुनियादी शिक्षा का उद्देश्य उन बच्चों की शिक्षा का समर्थन करना है, जो स्कूल प्रदर्शनों में अपने सहपाठियों से बहुत पीछे छूट जाते हैं। इस संबंध में मुझे हमेशा राजस्थान के चुरू ज़िला अंतर्गत तारानगर ब्लॉक के स्कूलों के बच्चे याद आते हैं। पढ़ाई के संदर्भ में उनकी परेशानियों के कारण भी शिक्षक ही हैं।

वहीं, दूसरी तरफ पिछड़ जाने के सिलसिले में इटली के कुछ बच्चों की तरफ से लिखी गई किताब “स्कूल ऑफ बार्बियाना” उल्लेख का विषय है, क्योंकि पीछे होने या कई बार असफल होने का कारण शिक्षक ही होते हैं।

यह दृष्टिकोण केवल बच्चे ही नहीं,  बल्कि माता-पिता और वे लोग भी बना लेते हैं जो स्कूल प्रणाली से परिचित नहीं हैं। जिसके कारण स्कूल और समुदाय के संबंध पर गहरा प्रभाव पड़ता हैं और इसका नुकसान सिर्फ और सिर्फ बच्चा ही भुगतता है।

बच्चों को समान स्वतंत्रता देने की ज़रूरत

शिक्षक का मकसद क्या होता है, इस बात को गहराई से समझने की ज़रूरत है। सबसे पहले एक शिक्षक का मकसद बच्चों में सीखने की अक्षमता को खत्म करना है। दूसरा, बच्चों को समान स्वतंत्रता देने की ज़रूरत है ताकि वे अपनी दुनिया की तलाश कर सकें। माता-पिता को भी यह महसूस होना चाहिए कि स्कूल में अच्छी पढ़ाई हो रही है।

सीखने-सिखाने का अच्छा वातावरण हो। समुदाय को यह महसूस होना चाहिए कि शिक्षक, शिक्षा के लिए चिंतित हैं और सीखने की प्रक्रिया को मज़बूत करने के लिए फिक्रमंद हैं। इस विचार को लागू करने के लिए शिक्षकगण, समुदाय और स्कूल के बीच एक अटूट लिंक बनाने की कोशिश करें।

फोटो साभार- मोहम्मद हबीब

शिक्षकों को हमेशा लगता है कि उनका काम सिर्फ कक्षा में आना-जाना, पाठ पूरा कराना और परीक्षा की तैयारी कराना है। शिक्षक यह भूल गए हैं कि बच्चों में जानने की गर्मजोशी को उभारना भी उनकी ज़िम्मेदारियों में शामिल है। स्कूलों में ऐसी स्थितियां पैदा ही नहीं की जाती हैं, जहां शिक्षक इस ज़िम्मेदारी को पूरा कर सकें।

पाठ्यक्रम का डिज़ाइन निजीकरण की तरफ जा चुका है

इस सीखने की प्रक्रिया को स्कूलों के अंदर और मज़बूत बनाने  की ज़रूरत है। इसके साथ इस विचार को लागू करने के लिए समुदाय और स्कूल के बीच एक ठोस संबंध बनाना होगा। इसके लिए माता-पिता, शिक्षक और स्कूल प्रबंधन समिति मुख्य भागीदार होते हैं।

हम यह देखते आए हैं कि संपूर्ण बुनियादी शिक्षा प्रणाली तक पहुंच में कई समस्याएं हैं, जहां पर सरकारी स्कूलों को खराब हालातों में छोड़ दिया जाता है।

स्कूली शिक्षा की पूरी चर्चा में यह समझना महत्वपूर्ण है कि स्कूल एक ऐसी जगह है, जहां बच्चा वास्तविक “स्टेक होल्डर” है। शिक्षक की यह भी ज़िम्मेदारी है कि कक्षा और स्कूल में एक स्वस्थ वातावरण बनाएं जहां बच्चे स्वतंत्र रूप से सीख सकें। आमतौर पर शिक्षक कक्षा में बच्चे के मनोविज्ञान और स्कूल के बाहर बच्चे के समाजीकरण को समझने की कोशिश नहीं करते हैं, जबकि शिक्षक को बच्चे के परिवार के साथ लगातार मिलना चाहिए।

यह तो ज़ाहिर है कि तेज़ी से पूंजीवादी व्यवस्था की ओर बढ़ते समाज में शिक्षा का उद्देश्य, शिक्षण शैली और पाठ्यक्रम का डिज़ाइन निजीकरण की तरफ जा चुका है। इन्हीं हालातों को देखते हुए “इवान इलिच” ने “डी-स्कूलिंग” की वकालत की है, क्योंकि इनके मुताबिक सभी स्कूलों ने अपना असली उद्देश्य खो दिया है। मैं यह ज़रूर कहूंगा कि गाँधी फेलो के तौर मैंने स्कूलों और ग्रामीणों के बीच सामंजस्य की कमी देखी है।

नोट:मोहम्मद हबीब बैच 11 के गाँधी फेलो हैं। लेख में प्रयोग किए गए दार्शनिक की अवधारणा ‘जदीद तालीमी फलसफा’ किताब से लिए गए हैं।

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