बात अगस्त महीने के तीसरे सप्ताह की है। नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी दिल्ली के बुराड़ी स्थित अपने ‘मुक्ति आश्रम’ में प्रवास कर रहे थे। ‘मुक्ति आश्रम’ मुक्त बाल श्रमिकों का अल्पकालीन पुनर्वास केंद्र है। आश्रम में उन मुक्त बाल श्रमिकों को तब तक रखा जाता है जब तक कि उन्हें उनके घर भेजने के लिए कानूनी औपचारिकताएं पूरी नहीं कर ली जातीं।
खैर, कैलाश सत्यार्थी जब मुक्ति आश्रम में प्रवास कर रहे थे तब उनसे उम्र में बड़े दिख रहे 4 व्यक्ति उनसे मिलने के लिए वहां पहुंचे। सभी ने अपना नाम क्रमश: जोखूराम, रामविनय राम, कोदू राम व बिनोद राम बताए। सभी लोग झारखंड राज्य के गढ़वा जिले के केतार नामक गांव से आए हुए थे। उन्होंने आश्रम के चौकीदार से अनुनय-विनय किया कि उनको कैलाश सत्यार्थी जी से मिलवा दिया जाए।
कौन थे ये 4 व्यक्ति?
मुक्ति आश्रम में पहुंचने से पहले ये लोग दिल्ली के कालका जी स्थित ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ (बीबीए) के कार्यालय भी पहुंचे थे लेकिन वहां कैलाश सत्यार्थी की व्यस्तता की वजह से उनसे मिलने में कामयाब नहीं हो पाए थे लेकिन वहां उनकी मुलाकात संगठन के अध्यक्ष रमाशंकर चौरसिया से हो गई थी। मुक्ति आश्रम के चौकीदार को उन्होंने बताया,
हमें भले 2 महीने दिल्ली में रुकना पड़े लेकिन बगैर कैलाश सत्यार्थी का दर्शन किए हम यहां से हिलने वाले नहीं हैं। उनके कारण ही हम आज आज़ाद हैं। बाल श्रम के दलदल से उन्होंने ही हमें मुक्त कराया था।
कैलाश सत्यार्थी तक जब इस बात को पहुंचाया गया कि तकरीबन 34 साल पहले के मुक्त कराए गए बाल श्रमिक आपसे मिलने के लिए बेताब हैं, तब वे भाव-विभोर हो गए।
चौकीदार से इस सूचना को पाकर वे हतप्रभ भी हुए कि जिन दस-बारह साल के बच्चों को चौंतीस वर्ष पहले उन्होंने बाल श्रम की गुलामी से मुक्त कराया था, आज वे चौवालिस-पैंतालीस की उम्र में कैसे लग रहे होंगे?
कैलाश सत्यार्थी सोचने लगे,
अब तो उन सभी की शादी भी हो चुकी होगी तथा अब तो वे दादा– नाना भी बन चुके होंगे।
यह उस समय की बात है जब कैलाश सत्यार्थी ने बाल बंधुआ मज़दूरी के खिलाफ लड़ाई लड़ने का निश्चय किया था।
सन 1983 में तत्कालीन बिहार के डाल्टनगंज में बंधुआ मुक्ति चौपाल का एक आयोजन किया गया था। कैलाश सत्यार्थी उसमें भाग लेने के लिए पहुंचे हुए थे। वहीं उन्हें पता चला कि कुछ लोग यहां से बच्चों को बहला-फुसलाकर कालीन बुनवाने के लिए उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर, भदोही और बनारस जैसी जगहों में ले जाते हैं तथा गुलामों की तरह उनसे सलूक करते हैं।
बाल मज़दूरों के ऊपर हो रहे अमानवीय अत्याचारों की कहानियों से जब वे रूबरू हुए तब कैलाश सत्यार्थी का हृदय करुणा से भर गया और उनकी संवेदना उमड़ पड़ी। उन्होंने वहीं ऐसे पीड़ित बाल मज़दूरों को मुक्त कराने का निश्चय किया। पीड़ित बाल मज़दूरों के माता-पिता भी कैलाश सत्यार्थी से मिले और अपने बच्चों पर हो रहे ज़ुल्मों की व्यथा-कथा सुनाईं व उनको मुक्त कराने का अनुरोध किया।
कैलाश सत्यार्थी के जज़्बे को देखकर दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां बरबस याद आ जती हैं-
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
13 बच्चों को बचाया
मिर्ज़ापुर में चम्पा देवी नाम की गांधीवादी विचारों को मानने वाली एक महिला रहती थीं। इनके घर में ही कैलाश सत्यार्थी ने कार्यालय खोल रखा था। इसी कार्यालय में रामदास राम व केशव राम एक बार फिर शिकायत लेकर आए कि उनके बच्चों सहित 13 और बच्चों को गांव अदलपुरा, तहसील चुनार, ज़िला मिर्ज़ापुर में बंधुआ बनाकर काम करवाया जा रहा है।
इन दोनों ने सत्यार्थी जी से इनके बच्चों को मुक्त करवाने की प्रार्थना की। योजना के अनुसार सत्यार्थी जी, रामदास राम, केशव राम, क्रांति भूषण, पत्रकार महेंद्र, गुलाब सिंह वकील व पुलिस के 2 कांस्टेबल की एक टीम बनाई गई। उस समय मिर्ज़ापुर में गंगा नदी पर पुल नहीं बना था। अदलपुरा जाने के दो रास्ते थे। एक सड़क द्वारा तथा दूसरा नाव द्वारा गंगा नदी पार करके।
4 दिसम्बर, 1985 को कैलाश सत्यार्थी व टीम ने नाव द्वारा ही गंगा नदी पार की व अदलपुरा के लिए रवाना हुए। अदलपुरा में, जिस व्यक्ति ने तेरह बच्चों को बंधक बना रखा था, उसका नाम बोधरबिंद था। बोधरबिंद आपराधिक पृष्ठभूमि का व्यक्ति था तथा उस पर कई मुकदमे चल रहे थे।
जब कैलाश सत्यार्थी अपनी टीम के साथ उसके घर पर पहुंचे, जहां बच्चे गलीचा बुनाई का काम कर रहे थे, तब बोधरबिंद वहीं पर मौजूद था। कैलाश सत्यार्थी के साथ उसकी ज़बर्दस्त बहस हो गई। वह समझ गया कि अब उसका बच पाना मुश्किल है और वह वहां से वह फरार हो गया।
कैलाश सत्यार्थी व उनकी टीम ने जल्दी-जल्दी में सभी तेरह बच्चों को वहां से निकाला तथा नदी के घाट की तरफ ले आए क्योंकि उनको नाव द्वारा ही मिर्ज़ापुर के चुनार तहसील मुख्यालय वापस आना था। ताकि वहां उनको एसडीएम रिलीज़ सर्टिफिकेट दे सके।
सभी बच्चों की हालत बहुत बुरी थी। जगह-जगह से उनके हाथ कटे हुए थे। जब किसी बच्चे का हाथ गलीचा बुनते-बुनते कट जाता, तो बोधरबिंद उस घाव में माचिस की तीली का मसाला भर कर आग लगा देता था। जिससे हाथ में जो खून निकल रहा होता था, वह त्वचा के जलकर चिपकने के कारण बहना बंद हो जाता था।
खैर अब कैलाश सत्यार्थी ने राहत की सांस ली क्योंकि सभी बच्चे सुरक्षित नाव में आ गए थे। यहीं से साज़िशों का दौर शुरू हुआ।
कैलाश सत्यार्थी और बाल मज़दूरों को डुबाने की साज़िश
सत्यार्थी जी व सभी बच्चों को एक नाव में बिठाया गया और दूसरी नाव में पुलिस वाले व बाकी लोग बैठ गए। बोधरबिंद ने नाविक के साथ मिलीभगत कर ली थी और नाविक कैलाश सत्यार्थी व बच्चों की नाव को गंगा नदी में डुबो देना चाहता था।
जैसे ही नाव मंझधार में पहुंची, तो नाव बुरी तरह डगमगाने लगी। कैलाश सत्यार्थी ने नाविक को खबरदार किया कि क्या कर रहे हो? नाव को सम्भालो। हमारे साथ बच्चे भी हैं लेकिन नाविक कहां मानने वाला था। वह नाव को बीच धार में छोड़कर, दूसरी ओर से आ रही दूसरी नाव पर कूद जाना चाहता था लेकिन सत्यार्थी जी ने ऐसा नहीं होने दिया और नाविक का हाथ कस कर पकड़ लिया तथा उसको बाध्य किया कि वह नाव को किनारे तक ले चले।
कैलाश सत्यार्थी के प्रयासों से सभी बच्चे सकुशल मिर्ज़ापुर की तहसील चुनार आ गए और उन्होंने उन बच्चों को रीलीज सर्टिफिकेट जारी करवाया। इन सभी बच्चों को सरकार की तरफ से मुआवजे़ के तौर पर 6 हज़ार रुपए भी दिए गए।
आज ये सभी बच्चे स्वतंत्र और गरिमापूर्ण जीवन भी जी रहे हैं। ये 1 हज़ार रुपए महीने की दर से पेंशन भी पा रहे हैं। यहां गालिब का यह शेर चरितार्थ होता है,
सफ़ीना जबकि किनारे पे आ ही लगा गालिब,
खुदा से क्या सितम-ओ-ज़ोर-ऐ-नाखुदा कहिए।
उन 13 बच्चों में से 4 बच्चे जब 23 अगस्त, 2019 को कैलाश सत्यार्थी से मिल रहे थे, तो वे पल उनके लिए बहुत ही भावुक थे। कैलाश सत्यार्थी के निर्देश पर सभी को कैब से कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन्स फ़ाउंडेशन (केएससीएफ) के कार्यालय लाया गया। जहां सत्यार्थी आंदोलन के सभी साथियों के सामने उन्होंने तकरीबन साढे़ तीन दशक पहले अपने साथ हुए अमानवीय अत्याचारों को साझा किया।
________________________________________________________________________________
लेखक प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।