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“क्यों JNU प्रशासन द्वारा रोमिला थापर से सीवी की मांग गलत है”

इन दिनों हमेशा खबरों में शुमार रहने वाला JNU छात्र समुदाय दो दिनों से अपना नया छात्र नेतृत्व चुनने में मशरूफ है। JNU की लाल दिवारों की चौहद्दियों की फिज़ाओं में ढपली-नारों-गीतों की महफिल शराबोर हैं।

इन सबके बीच मेरी चिंता इसके पहले की एक घटना को लेकर है। कुछ दिन पहले JNU प्रशासन ने प्रोफेसर इमेरिटा प्रतिष्ठित इतिहासकार से उनका सीवी मांगी है, ताकि उनका यह मानद दर्जा बनाए रखने की समीक्षा की जा सके।

सामाजिक विज्ञान का कोई स्टूडेंट या शोधार्थी अगर प्रोफेसर रोमिला थापर को नहीं जानता हो तो उसको इसलिए माफ किया जा सकता है कि वह अभी स्टूडेंट या शोधार्थी है और अभी लिखने-पढ़ने और सीखने की प्रक्रिया में है।

पर वह JNU जहां रोमिला थापर अपने जीवन की 49 साल की सेवाएं दे चुकी हैं, उस विदुषी महिला के बारे में अगर JNU प्रशासन ही नहीं जानता, तो उस कुलपति के लिए डूब मरने वाली बात है। वह दूसरे विश्वविद्यालय नहीं, अपने यहां सेवा दे चुकी उस शिक्षाविद के बारे में कुछ नहीं जानता है, जो देश-विदेश में सम्मानित हस्ती हैं।

रोमिला थापर, फोटो सोर्स- ट्विटर

कौन हैं रोमिला थापर?

क्या होता है इमेरिटस प्रोफेसर्स?

इमेरिटस प्रोफेसर्स किसी भी विश्वाविद्यालय का अवेतनिक परंतु सम्मानित पद है, जो शैक्षणिक क्षेत्र में व्यक्ति की उपलब्धियों के आधार पर दिया जाता है। इमेरिटस के दर्जे की सिफारिश संबंधित केंद्र करता है और इसके लिए सीवी की ज़रूरत नहीं होती है। यह परंपरा है कि इमेरिटस का दर्जा आजीवन होता है और कभी इसकी समीक्षा नहीं की जाती है।

मामले में JNU प्रशासन तर्क दे रहा है, वह यह है,

कार्यकारी समिति ने 23 अगस्त 2018 की अपनी बैठक में प्रोफेसर इमिरेटस के दर्जे के लिए मानकों में बदलाव किया था। प्रोफेसर रोमिला थापर को इसी का हवाला देकर रजिस्ट्रार ने पत्र भेजा है।

क्या JNU प्रशासन इतना भी नहीं जानता है कि किसी भी विश्वविद्यालय की नीतियों में बदलाव जिस तिथि को हुए हैं, उस तिथि से लागू होते हैं ना कि पहले की तिथि से। क्या कभी सुना है कि सरकार ने डीज़ल-पेट्रोल या रेल भाड़े में बढ़ोतरी या कटौती की और यह दो या पांच साल पहले से लागू होगा और जनता को पहले का भी बकाया चुकाना होगा।

आज JNU प्रशासन खिलजी सरीखे प्रशासन की तरह ही व्यवहार कर रहा है, जिनका ज्ञान की किसी प्रक्रिया से कोई लेना-देना नहीं है, फिर चाहे वह धारा कोई भी हो। आप बस आप सत्ता के मद में ज्ञान का वैसा ही अपमान कर रहे हो, जैसे विष्णुगुप्त चाणक्य के साथ भरी राजसभा महाराज नंद ने किया गया था।

फर्क इतना है कि आज इस तरह की कोशिशों पर लोग आपको आईना दिखा रहे हैं। आप केवल अपनी इच्छा मात्र से ना ही नालंदा को आग के हवाले कर सकते हो ना ही किसी चाणक्य का भरी राज्य सभा में अपमान।

शिक्षा सचिव आर सुब्रमण्यम ने ट्वीट में कहा है,

जेएनयू में प्रोफेसर इमेरिटस के दर्जे को लेकर उठे विवाद पर मैंने वाइस चांसलर से चर्चा की है। किसी प्रोफेसर इमेरिटस को हटाने की कोई योजना नहीं है, खासकर सम्मानित शिक्षाविदों को। सिर्फ अध्याधेश के आदेशों का पालन किया जा रहा है।

ज़ाहिर है इस पूरे मामले में JNU प्रशासन जिस तरह के तर्क पेश करके स्वयं को दूध का धुला बताने की कोशिश कर रहा है, वह है नहीं। उनकी कार्य-योजना कुछ और है, जो सही तरीके से फीट नहीं हो पा रही है।

JNU प्रशासन को यह नहीं भूलना चाहिए कि विश्वगुरु बनने की घुड़दौड़ में अपनी ही शिक्षाविद्दों को अपनानित करके वह मंज़िल तक पहुंचना तो दूर घुड़दौड़ में शामिल ही नहीं हो पाएंगे।

शिक्षाविद्द किसी भी विचारधारा के हो, सरकार का प्रशंसक हो या आलोचक हो, उसका होना ही ज़रूरी है, क्योंकि वह ज्ञान की उस परंपरा का पोषक हैं, जिसपर आने वाली पीढ़ियों का भविष्य टिका है।

________________________________________________________________________________सोर्स- रोमिला थापर की किताब Aśoka and the decline of the Mauryas

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