बैंक स्ट्राइक घोषित करती है. सरकार घबरा जाती है. सरकार बैंक के मैनेजमेंट पर दबाव डालती है और सारे ऑफिसर्स जो स्ट्राइक में भाग लेने वाले थे उनके नाम ऑर्डर आता है की स्ट्राइक ही असंवैधानिक और कानून के खिलाफ है. कुछ देर बाद यूनियन खुद ही स्ट्राइक को स्थगित कर देती है. उन्नीस सौ तीस में भी यही हुआ था. कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करते हुए गाँधी ने अंग्रेज़ों के बातचीत के प्रस्ताव पर हामी भरते हुए सिविल डिसओबेडिएंस मूवमेंट को कुछ दिनों के लिए टाला था. लेकिन फायदा तब भी नहीं हुआ था अब भी शायद ही हो. क्यूंकि जब सरकारें आपके बेसिक राइट्स का हनन कानून का सहारे लेकर करने लगती हैं तब कानून खुद ही निरर्थक बन जाता है. जब आपसे डिस्सेंट को छीन लिया जाता है और सरकार परस्ती को राष्ट्रवाद के चोले में ओढ़ा दिया जाता है तब आपकी नागरिकता शुन्य के सामान हो जाती है. न आप सरकार के खिलाफ कोई निहत्था प्रोटेस्ट कर सकते हो न उनकी नीतियों के खिलाफ स्ट्राइक पर जा सकते. भारतीय संविधान की सबसे उत्कृष्ट शिलालेख जो की भारत की प्रिएम्बल है उसके सबसे पहले तीन अक्षर कहते हैं- “वी द पीपल” लेकिन जब वही पीपल अपनी आवाज़ को संवैधानिक तरीके से उठाने की कोशिश करते हैं उन्हें सरकार “हु द पीपल?” बना देती है. अर्थव्यवस्था की लाग लपट पीटने वाले अर्थव्यवस्था की चक्की चलते हुए खून पसीने बहाने वालों से कभी रूबरू नहीं होते. खुद अपनी सैलरी संसद के सन्न में बिना किसी रोक थाम के बढ़वा लेने वाले दैविक और संवेदनशील नेतालोग हमलोगों को तारीख देते हैं. तारीखें गुज़र जाती हैं, पैसे का वैल्यू गिर जाता है, महंगाई की मार बढ़ जाती है परिवार की रिस्पॉन्सिबिलिटी बढ़ जाती है लेकिन बदले में मिलती है तो बस तारीख! तारीख पे तारीख!
जाते जाते दुष्यंत की पंक्तियाँ छोड़ जाता हूँ.
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।