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“क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय भाषाओं के बगैर संभव नहीं है हिन्दी का विकास”

लाइब्रेरी

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भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपनी मंडली के साथ मिलकर 34 साल के अल्प जीवन में हिंदी भाषा में कविता, नाटक और पत्रकारिता के माध्यम से हिंदी भाषा के उत्थान का जो नक्शा खींचा, आज का हिंदी साहित्य उनसे अपने दीर्घायु होने की प्रेरणा लेता है।

भारतेंदु और उनकी मंडली ने ना सिर्फ नई विधाओं को स्थापित किया, बल्कि हिंदी भाषा में एक नयापन भी सामने लेकर आए। उन्होंने भ्रंश और अपभ्रंश में बिखरी हुई भाषाओं को एक हिंदी भाषा में पिरो दिया। शायद इसलिए भारतेंदु को भारत में नवजागरण का अग्रदूत कहा जाता है।

भारतेंदु के माध्यम से रचित और पुष्पित-पल्लवित हिंदी अपने संघर्षों से बाद राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार्य की गई। जबकि देश के कई राज्यों में भाषाई विद्रोह को देखते हुए हिन्दी, राजभाषा के रूप में ही स्वीकार्य हुई जिसे कई आलोचक अनुवाद की भाषा के रूप में परिभाषित करते हैं।

इस आलोचना के बाद भी इस बात से कोई इंकार नहीं है कि हिंदी भारत में एक बहुत बड़े भू-भाग में बोली जाने वाली भाषा है। देश की एक बड़ी आबादी हिंदी भाषा में ही अपना सामाजिक व्यवहार करती है।

हिन्दी भाषा को सामाजिक तौर पर व्यवहार करने में इस बड़ी आबादी की अपनी-अपनी समस्याएं भी हैं, क्योंकि औपनिवेशिक काल में सरकारी हलकानों द्वारा थोपी गई भाषा अंग्रेज़ी ने अपना वर्चस्व इतनी मज़बूती से स्थापित किया कि उसकी नींव की जड़ें खोदना नामुनकिन सा लगता है।

फोटो सभार- Flickr

इसका सबसे बड़ा खमियाज़ा हिंदी भाषा में संस्कार पाने वाले उन युवाओं को भोगना पड़ता है, जिनपर मौजूदा भारत गर्व से कहता है कि वह विश्व की आबादी में सबसे युवा देश है।

आज इसी युवा भारत के युवाओं के सामने भाषाई समस्या यह है कि तमाम राज्यों के राजनीतिक दलों ने क्षेत्रीय भाषाई अस्मिता की राजनीति के चक्कर में राज्यों के युवाओं को उस भाषा से महरूम रख दिया, जिस भाषा में देश के तमाम काम-काज  होते हैं।

आज देश का प्रत्येक युवा क्षेत्रीय भाषा और औपनिवेशिक भाषा के मकड़जाल में इतना उलझ गया है कि ना तो उसकी क्षेत्रीय भाषा पर मज़बूत पकड़ है और ना ही औपनिवेशिक भाषा पर बेहतरीन समझदारी। भाषाओं की राजनीति में वह पेंडुलम के समान इधर-उधर डोल रहा है।

अंग्रेज़ी के वर्चस्व के बीच जेएनयू का मेरा सफर

मातृभाषा, देवभाषा (संस्कृत), राजभाषा, औपनिवेशिक भाषा और कई तरह की बोलियों को सुनते-समझते इनकी सभ्यता-संस्कृति में लहालोट होकर जेएनयू पहुंचने के बाद अंग्रेज़ी भाषा के किलानुमा वर्चस्व में मेरे पीएचडी का सफर समुद्री तूफान में अपनी कश्ती को बचाए रखने सरीखा है, जो बेशक उन युवाओं का हौसला बढ़ा सकता है जो सिर्फ एक भाषा को नहीं जानने के कारण खुद को हमेशा पीछे समझते हैं।

मेरा मानना है कि वे पीछे नहीं होते हैं। उनके पास सिर्फ एक भाषाई दीवार खड़ी होती है, जिसे लांघना या उसका बोझ ढोना व्यवस्था के पूर्वाग्रहों के कारण ज़रूरी सा बन गया है।

जेएनयू में अपने पहले सेमेस्टर में मै जिस कोर्स का हिस्सा रहा, वह “शिक्षा, समाज और संस्कृति” का था, जिसे प्रोफेसर दीपक कुमार पढ़ाते थे। देश के कई हिस्सों से जमा हुए स्टूडेंट्स, क्लास में अंग्रेज़ी भाषा में ही संवाद करते थे। प्रो. दीपक कुमार हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों ही भाषा में पढ़ाते थे।

फोटो साभार- Getty Images

मेरी समस्या अंग्रेज़ी बोलने-लिखने की थी, लेक्चर सुनकर समझने और पढ़ने की नहीं थी। इस वजह से क्लास में ना के बराबर ही बोलता था। पूरे के पूरे अंग्रेज़ी के महौल में मेरा आत्मविश्वास जब बिखरने के अंतिम क्षणों में था, तब प्रो. दीपक कुमार ने अचानक एक दिन पूछा, “महात्मा गाँधी की हिंद स्वराज किस-किस ने पढ़ी है?” पूरे क्लास में मैं अकेला था जिसने केवल हिंद स्वराज पढ़ी ही नहीं थी, बल्कि उस दौर के दो और महत्वपूर्ण साहित्य ‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ और ‘राम की शक्ति पूजा’ के साथ तुलनात्मक समीक्षा भी लिखी थी।

मुझसे कहा गया, मैं बताऊं मैंने क्या पढ़ा है? जब मैंने अपनी भाषाई समस्या का ज़िक्र किया तो प्रो. ने कहा यह तुम्हारी समस्या नहीं है। मैं अनुवाद करूंगा, तुम बताओ। मैंने पूरे 80 मिनट तक बोला और उसके बाद तालियों से पहले प्रो. और उसके बाद बाकी स्टूडेंट्स ने मेरा हौसला बढ़ाया।

प्रो. ने कहा कि तुम क्लास में चुप मत रहा करो, बोला करो। अंग्रेज़ी बोलने नहीं आता तो कोई बड़ी बात नहीं है। क्लास में कोई अभिमन्यु नहीं जिसने माँ के पेट में ही युद्ध कला सीख ली थी। उसके बाद मैं हर क्लास में सवाल-जवाब में शामिल होने लगा। क्लास के सहपाठियों ने मेरी भाषाई समस्या के समाधान के कई उपाए बताए जिनपर मैंने काम किया।

अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद किए गए पाठ्यक्रम, टेक्स्ट की मूल बात नहीं कह पाते

मैंने इस बात को समझा कि मेरी समझदारी में कोई कमी नहीं है, जो चीज़ें अंग्रेज़ी भाषा में क्लास में पढ़ाई जा रही है, उनपर थोड़ी-बहुत समझ या पढ़ाई मैंने हिंदी भाषा की किताबों में कर रखा है मगर भाषाई वर्चस्व मेरे आत्मविश्वास को तोड़ने के लिए बुलडोज़र का काम कर रही है।

डिक्शनरी और अंग्रेज़ी में चीज़ों को पढ़ने के संघर्ष के बाद दूसरे सेमेस्टर में जब “वीमेन मूवमेंट इन इंडिया एंड डिबेट्स” की शुरुआत हुई, तब मेरी समस्या दूसरी थी। चूंकि मैंने वीमेन स्टडीज़ में एम.फिल किया था, तो विषय पर एक मोटा-मोटी समझ थी मगर यह समझ मैंने हिंदी में अनुवाद की गई किताबों से बनाई थी।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

मैं जब भी किसी विषय पर अपनी समझ से क्लास में राय रखता था, तब मुझे यही कहा जाता, “तुम जो कह रहे हो वह केवल इस तरह से नहीं है। तुम्हारी समझदारी एक पक्षीय बनी हुई है, उसको बहुपक्षीय बनाओ।” तब मेरी समझ में यह बात आई कि किसी भी टेक्स्ट को पढ़ने के लिए ज़्यादा ज़रूरी यह है कि वह मूल रूप से जिस भाषा में है, उसी भाषा में पढ़ने पर बेहतर होता है। कई दफा अनुवाद, टेक्स्ट की मूल बात नहीं कह पाता। इस बात ने मुझे मजबूर किया कि मैं अनुवाद पढ़ने से परहेज़ करूं। 

मैं जब भी मूल रचना पढ़ने में असर्मथ रहता था, तब उसी डिबेट को भारतीय संदर्भ में खोजकर पढ़ने की कोशिश करने लगता था। बेशक इसके लिए मुझे प्रकाशकों और लाईब्रेरियों की खाक ही क्यों ना छाननी पड़े। यह तरकीब काम करने लगी और मेरी समझदारी पहले से बेहतर बनी। इसी समझदारी पर काम करते हुए मैं सेमेस्टर में अव्वल भी रहा।

जेएनयू के शिक्षकों ने भाषाई अंतर को खत्म किया

हिंदी भाषाई संस्कार से पढ़े-लिखे युवाओं के साथ क्लास में अंग्रेजी माध्यम की भाषाई वर्चस्व सबसे बड़ी समस्या होती है, जिसको लेकर कई बार स्टूडेंट्स हताशा के शिकार होते हैं। इस भाषाई खौफ को तोड़ने के लिए ज़रूरी है कि क्लास में शिक्षकों और बाकी स्टूडेंट्स के साथ एक समझदारी विकसित की जाए।

मेरे क्लास में यह समझदारी शिक्षकों और बाकी साथियों ने की जिससे मुझे ही नहीं, बल्कि मेरे बाकी क्लास के साथी जो देश के दूसरे राज्यों से आए थे, जिनकी भाषाई संस्कार अंग्रेज़ी माध्यम से नहीं हुई थी, उनको भी इसका फायदा हुआ। यही स्थिति अंग्रेज़ी भाषा में संस्कार पाए युवाओं के साथ भी है। क्षेत्रीय भाषा से उसका कटाव उसे एलिगेशन की उस भीड़ में पटक देता है, जहां उसको यही एहसास होता रहता है कि वह अपने लोगों के बीच में अजनबी है क्योंकि उसको उसकी अपनी भाषा ही नहीं आती है।

जेएनयू के शिक्षकों ने इस समझदारी को केवल क्लास में ही नहीं, बल्कि सेमिनार और वर्कशॉप में भी विकसित किया। हिंदी में अच्छे अनुवाद या डिबेट्स को समझने के लिए पर्याप्त माहौल विकसित किया गया। अंग्रज़ी भाषा में दिक्कत महसूस करने वाले स्टूडेंट्स को हीन-भावना से ग्रसित नहीं होने दिया गया।

बिखरी हुई बोलियों और भाषाओं को एक साथ लाने की ज़रूरत

शिक्षा के तमाम क्षेत्रों में इस तरह की समझदारी विकसित करने की ज़रूरत सबसे अधिक है। अगर यह समझदारी विकसित नहीं हुई, तो देश-दुनिया के साथ समाज भी उन वर्गों की समस्या को कभी समझ ही नहीं सकेगा, जिसके पास अभिव्यक्त करने की वह भाषा ही नहीं है जिसमें देश या राज्य के कामकाज की पूरी व्यवस्था चलती है।

फोटो सभार- Flickr

हमको यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि भारत विविधताओं से भरा वह देश है, जहां हर दो छलांग पर भाषा ही नहीं, बल्कि खान-पान, वेशभूषा, सभ्यता-संस्कृति सब कुछ बदल जाती है। केवल किसी भाषाई वर्चस्व के आधार पर उनकी अवहेलना एक लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र की आत्मा की मौत के समान है।

आज तमाम बिखरी हुई बोलियों और भाषाओं को अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा में समेटने की ज़रूरत है। जो काम भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी की बिखरी हुई भाषाओं को हिंदी में समेटकर किया था, उसे आज के दौर में भी अमल में लाने की ज़रूरत है।

किसी भी भाषा में प्रशिक्षित होने के साथ-साथ अपनी मूल भाषा की बेहतर समझ ही, मूल भाषा की सभ्यता-संस्कृति और साहित्य को प्रशिक्षित भाषा में अभिव्यक्त कर सकती है, जिससे भाषाई दीवार ना सिर्फ टूटेगी, बल्कि पूरे समाज,राज्य, देश और दुनिया के लोग एक-दूसरे को समझ सकेंगे।

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