“साल 2016-17 बिहार इंटरमीडिएट परीक्षा में अंग्रेज़ी में कम अंक प्राप्त करने की वजह से सैंकड़ों स्टूडेंट फेल हो गए थे। इसके पीछे की वजह साफतौर से दसवीं में इंग्लिश का अनिवार्य ना होना है लेकिन इंटरमीडिएट में तो इंग्लिश अनिवार्य है।
अब होता क्या है कि बच्चे तो दसवीं तक अंग्रेज़ी पढ़ते नहीं हैं और ना ही सरकार उस तरह की व्यवस्था और सुविधाएं उपलब्ध करा रही है। अब हमारे विद्यालय में 14 शिक्षक हैं और 1100 बच्चे हैं। कक्षा एक से दस तक की पढ़ाई चलती है। तीन से चार शिक्षक तो सरकारी कागज़ात पूरा करने में ही लगे रहते हैं।
जोड़ लिजिए कि एक शिक्षक पर कितने स्टूडेंट पडे़े। आपको विश्वास नहीं होगा लेकिन सच तो यह है कि अगर कोई शिक्षक पढ़ाने वाला है तो भी उसे पढ़ाने नहीं दिया जाता है।
मुज़फ्फरपुर ज़िला से 20 किलोमीटर दूर स्थित उ.हाई स्कूल पिलखी में अंग्रेज़ी के अध्यापक मो. जावेद का का कहना है कि
ब्लॉक व ज़िला स्तर पर इतना पेंच है सरकारी पचड़ों का कि सारे मास्टर पढ़ाई छोड़कर इन्हीं सभी कामों में लगे रहते हैं। जो पढ़ाने वाला है उसे विद्यालय के प्रधानाध्यापक कागज़ी कामों में लगा के रखते हैं।
तो वहीं इंग्लिश की अनिवार्यता के सवाल पर रामेश्वर उच्च मध्य विद्यालय बिंदा के 14 साल के मो. इम्तियाज़ कहते हैं,
सर, दसवीं में सरकार को इंग्लिश अनिवार्य करना ही चाहिए। मैं सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनना चाहता हूं। क्या बिना इंग्लिश के यह संभव है? अनिवार्य ना होने की वजह से इंग्लिश कोई भी बच्चा उतना नहीं पढ़ पाता है और ना ही सर पढ़ाते हैं, इसकी वजह से आगे काफी दिक्कतें आती हैं।
इसी शहर से 5 किलोमीटर दूर श्री विश्राम सिंह उच्च विद्यालय रोहुआ में कार्यरत शिक्षक डॉ.अरुण कुमार शर्मा कहते हैं,
सरकार ने वोट बैंक की जुगत और अपनी राजनीति में शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से चौपट कर दिया। अब ना विद्यालय में शिक्षक हैं और ना ही स्टूडेंट्स। अंग्रेज़ी तो छोड़िए हिंदी भी अब बच्चे ना लिखने में सक्षम हैं और ना बोलने में। एक आवेदन बोल दीजिए लिखने के लिए तो तारे देखने शुरू कर देते हैं।
वह आगे बताते हैं,
मार्केट में अंग्रेज़ी की डिमांड बढ़ रही है लेकिन बिहार सरकार ने अब तक 10वीं बोर्ड में अंग्रेज़ी को अनिवार्य नहीं किया है। थोक के भाव में प्राइवेट अंग्रेज़ी कोचिंग सेंटर खुल रहे हैं। कर्पूरी ठाकुर ने ‘पास विदाउट इंग्लिश’ की पॉलिशी लागू की और बाद के सरकारों ने इसे पूरी तरह से खत्म कर दिया। हुआ यह कि आज भी सरकार कान में रूई डालकर सो रही है, बच्चे बर्बाद हो रहे हैं। किसे फर्क पड़ता हैं?
डॉ.अरुण कुमार आगे बताते हैं,
सारे अफसरशाही घुसखोरी की जुगत में लगे रहते हैं। पढ़ाने पर किसका ध्यान है? एक बात समझिए ना अब ‘वो देवी है और ना कराह’। डिग्री धारकों की संख्या बढ़ी है। क्वालिटी शून्य हो गई है। मैं रसायनशास्त्र का अध्यापक हूं। बच्चे ना एटॉमिक नंबर समझते हैं और ना इलेक्ट्रॉन। कैसे समझेंगे? मिडिल स्कूल में विज्ञान के शिक्षक हैं कहां? दसवीं तक तो टेबल-कुर्सी की तरह पास करते हैं और आगे इसका खामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ता है। हम इसी तरह से रूबी राय और गणेश कुमार जैसे स्टूडेंट पैदा करते रहेंगे, जो पॉलिटिकल साइंस के बदले ‘प्रोडिकल साइंस’ कहेंगें।
इससे इतर इसी ज़िला में स्थित ‘डीआईआईटी ब्रिटिश इंग्लिश कोचिंग सेंटर’ के डायरेक्टर संजीत कुमार सिंह बताते हैं कि हम उस दौर में जी रहे हैं, जहां सारी दुनिया एक दूसरे से कनेक्ट हैं। इंग्लिश एक इंटरनेशनल लैंग्वैज है लेकिन बिहार में दसवीं में इसे पढ़ना अनिवार्य ही नहीं है, सिर्फ नाम का विषय है। परीक्षा होगी आप उसमें शामिल हो जाइए, बस यहीं एक अनिवार्यता है।
दुर्भाग्य रहा कि कर्पूरी ठाकुर के समय से लेकर अब-तक बिहार में दसवीं कक्षा में इंग्लिश को अनिवार्य नहीं रखा गया है। अब इससे दिक्कत यह होती है कि दसवीं तक तो किसी तरह से बच्चे पास कर जाते हैं लेकिन इंटरमीडिएट में आने पर उन्हें काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
अब मेरे यहां करीब 300 बच्चे अंग्रेज़ी सीखने के लिए आते हैं। इससे हम समझ सकते हैं कि बच्चों में अंग्रेज़ी सीखने की चाहत है, उनमें रुची है इंग्लिश के प्रति लेकिन सरकार ने ऐसी व्यवस्था ही बना दी हुई है कि बच्चों में चाहकर भी हाई स्कूल तक अंग्रेज़ी के प्रति झुकाव ही नहीं होता है। कैसे होगा? अब बच्चे भी सोचते हैं कि 10वीं बोर्ड में तो इसका नंबर जुटेगा नहीं।
भाषा कोई खराब नहीं होती है। हमें हर भाषा जाननी चाहिए। अब आप ही देखते होंगे कि कई ऐसे कंटेंट या किताबें हैं देश-दुनिया को लेकर, जो अंग्रेज़ी में उपलब्ध होते हैं लेकिन अन्य भाषा में खोजने से कहीं विरले मिल जाएं।
हां, हिंदी का दायरा धीरे-धीरे बढ़ा है लेकिन आज के दौर में अंग्रेज़ी से परहेज़ करना सही नहीं है। विज्ञान और मेडिकल की पढ़ाई आप हिंदी में चाहकर भी नहीं कर सकते हैं, इसलिए मेरा तो यही मानना है कि बच्चों को इंग्लिश से तो परहेज़ नहीं ही करना चाहिए और सरकार को भी अब सोचना चाहिए। सरकार अंग्रेज़ी को अनिवार्य क्यों नहीं करना चाहती है यह सरकार की मंशा में सवाल उठता है।
हो सकता है कि सरकार के मन में राजनीतिक हानि को लेकर उथल-पुथल हो लेकिन इससे वह बिहार के बच्चों का भला नहीं कर रहे हैं, उनका नुकसान ही हो रहा है।
साल 2016 में बिहार के 13 वर्षीय छात्र कुमार राजा बाबू ने पीएम मोदी को एक पत्र लिखकर अंग्रेज़ी को अनिवार्य करने की मांग की थी। पीएम मोदी दोबारा प्रधानमंत्री बन गए लेकिन, क्या हुआ?