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“हमारे यहां की शिक्षा बच्चों को रचनात्मक नहीं रट्टा मार बनाती है”

केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुंबई के 57वें दीक्षान्त समारोह में भारत को 2024 तक शिक्षा के क्षेत्र में विश्वगुरु बनाने की आशा व्यक्त की। इसमें IIT की भूमिका की भी उन्होंने बात कही।

भारत विश्वगुरु बन सकता है, यह बात तो हम काफी बार सुन चुके हैं और भारत में इसके लिए काबिलियत और संभावनाओं की कमी नहीं है। लेकिन सवाल इस बात पर उठते हैं कि आज़ादी के 70 साल के बाद भी क्या हम अपने संसाधनों का इतना विकास कर पाए हैं कि यह सपना साकार हो।

इस देश में शिक्षा का आधुनिकीकरण किया अग्रेज़ी शासकों ने। फैक्ट्री में काम करने लायक मज़दूर को तैयार करना ही उस वक्त की शिक्षा का एक छुपा हुआ उद्देश्य था। वह अपने उस उद्देश्य में सफल भी हुए लेकिन अभी भी हम भारत की शिक्षा व्यवस्था को देखे तो वह उस दौर की शिक्षा व्यवस्था से किसी भी तौर पर उन्नत नहीं है।

हमारी शिक्षा व्यवस्था में रचनात्मकता की कोई जगह नहीं

फोटो प्रतीकात्मक है। फोटो सोर्स- Youtube

बच्चों को स्कूलों में कड़े निर्देशों का पालन करवाते हुए, हां में हां मिलाने जैसी स्थितियों में शिक्षा दी जाती है। बच्चों के रचनात्मक, संवेदशील आदि गुणों की इस शिक्षा व्यवस्था में कोई जगह नहीं है।

कोई भी बड़ा आविष्कार या खोज के लिए सृजनात्मक होना अनिवार्य है। भारत के अधिकांश स्कूलों में इन सब बातों पर कोई ध्यान नहीं देता है। आप खुद ही सोच कर देख लीजिये 60 बच्चों की रूची एक नहीं हो सकती है लेकिन उन सबको एक कक्षा में बैठाकर एक ही तरह की बातें रटाई जाती हैं।

बच्चों की बदहाली के लिए उनके माता-पिता भी उतने ही ज़िम्मेदार हैं। बच्चों के भविष्य की चिन्ता में उनको ऐसी एक व्यवस्था का शिकार बनाया जाता है, जहां बच्चों को अपने जुनून को जानने, कौतुहलता को निखारने, स्वतंत्रता आदि का मौका ही नहीं मिलता।

सोमवार से शनिवार स्कूल, शाम को ट्यूशन और रविवार को या तो नाच अथवा गाने के क्लास। इन सबमें से जो खाली समय बच्चों को मिलता है, उसमें भी अधिकतर माता-पिता उनके हाथ में मोबाइल रखकर अपने कर्तव्य को पूरा समझते हैं।

उनको सिर्फ रट्टा लगाना और अच्छे नम्बर लाने के लिए प्रेरित किया जाता है। ऐसी मानसिक दुर्दशा से गुज़रे किसी बच्चे से हम भविष्य में कितनी उम्मीद कर सकते हैं?

देश में है शिक्षकों की भारी कमी

UDISE की 2016-17 रिपोर्ट के मुताबिक केन्द्रीय सरकार ने खुद माना है कि भारत में कुल 92275 स्कूलों में सिर्फ एक ही शिक्षक हैं। चार या पांच कक्षाओं को एक-साथ पढ़ाना और स्कूल के बाकी काम करना संभव नहीं है।

आप कल्पना कर सकते हैं, वहां किस तरह की शिक्षा दी जाती होगी। सरकार को विश्वगुरु का सपना देखने से पहले कम-से-कम हर स्कूल में ज़रूरी शिक्षक नियोग करना भूलना नहीं चाहिए। 30 जुलाई 2018 को केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा ने लोकसभा में अपने बयान में कहा था कि भारत में कुल 10 लाख शिक्षक के पद खाली पड़े हैं।

शिक्षा हमारे देश में एक व्यापार के तौर पर उभरा है। शिक्षा के निजीकरण ने इसकी बदहाली का एक और कारण है। बड़े पैमाने पर खोले गए निजी स्कूल शिक्षा के नाम पर एक भारी रकम की मांग करते हैं लेकिन उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा के नाम पर ये संस्थान बच्चों पर पढ़ाई का बोझ लाद देते हैं।

निजीकरण से जहां एक तरफ व्यापारीकरण बढ़ा है, वहीं दूसरी तरफ सरकारी स्कूलों की बदहाली में भी यह एक प्रमुख कारण है। समाज के उच्चवर्गीय लोग निजी स्कूलों में बच्चों को दाखिला करके भूल जाते हैं कि मुफ्त और उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा इस देश के हर एक बच्चे का अधिकार है।

आपको जानकर हैरानी होगी, अमेरिका सरकार की जनगणना रिपोर्ट 2016 के मुताबिक वहां पिछले दशक में निजी प्राथमिक स्कूलों में दाखिला 3.1 लाख से गिरकर 2.6 लाख पर आ गया है, वहीं सरकारी स्कूलों में दाखिला 77.2 लाख पर पहुंच चुका है।

हम यह भूल जाते हैं कि जो बच्चे निजी स्कूलों में जा नहीं सकते हैं, क्या उनको अच्छी शिक्षा पाने का हक नहीं है? क्या सरकार जो हमें सेवा देने के लिए बनी होती है, उनका यह कर्तव्य नहीं है कि हर बच्चे को अच्छी शिक्षा और तालिम मिले? जिस देश के संविधान में समाजवाद तथा कल्याणकारी राष्ट्र की बात कही गई हो, उसी देश में शिक्षा के प्रति सरकार कितनी जागरूक है?

एक रिपोर्ट के मुताबिक विश्व की कुल जनसंख्या में भारत की हिस्सेदारी 17.71% है। भारत  सरकार की जनगणना विभाग की माने तो हर मिनट भारत में 34 बच्चे पैदा होते हैं। दुनियाभर में वर्तमान तकनीक का विकास तेज़ गति से हो रहा है। हाल ही में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में किए गए एक शोध के मुताबिक, रोबोट की वजह से 2030 तक करीब 20 लाख लोगों के ऊपर अपनी नौकरी खोने का डर है।

ऐसे एक समय में भारत के स्कूल जहां आधारभूत ढांचे की कमी, शिक्षक की कमी, शिक्षा व्यवस्था वही पुराने तौर तरीके पर ही निर्भर हैं, जिसका प्रारूप इंग्लैंड में हुई औद्योगिक क्रान्ति को देखते हुए बनाया गया था, वह शिक्षा व्यवस्था भविष्य में हमारे बच्चे को नई दुनिया में काम करने के काबिल बना पायेगी?

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