भारत, हिंदुस्तान या इंडिया हमारे देश के विविध नाम हैं और इसमें बसने वाले लोग इसी विवधता के परिचायक हैं। हमारे देश ने भी कई संस्कृतियों को स्वीकारा है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक अनेक विविधताएं हैं, बोली हैं, भाषाएं हैं और इनको जो आपस में पिरोता है वह हमारा सामाजिक गठबंधन और संस्कृति है।
पितृपक्ष चल रहा है, तो ख्याल आया कि क्यों ना इसके बारे में थोड़ी सी बात कर ली जाए। चूंकि हमारी संस्कृति के अनुसार खासतौर पर सनातन धर्म में माना जाता है कि हमारे पूर्वज इसी पितृपक्ष में पृथ्वी लोक पर आते हैं।
इस समय सनातन धर्म के लोग श्राद्ध करते हैं, जिसमें बोला जाता है कि पहले हम आकाश, फिर जल और अंत में पृथ्वी में तर्पण करते हैं, ताकि हमारे पूर्वजों को शांति मिल सके।
कहते हैं कि श्राद्ध देते समय हम कुछ अंश कुत्तों को, कुछ चीटियों को और कुछ कौवों को दिया जाता है। कौवों से याद आया कभी हमारे हर दस कदम पर कौवों की कर्कश वाली आवाज़ आम बात थी। बचपन से हमने यही सुना था कि कौवे के बोलने का मतलब है कि कोई नया मेहमान आएगा और हम लोग बिस्कुट के लिए मुस्तैद रहते थे।
खैर, पितृपक्ष में कौवों का अलग ही महत्व है। पुराणों में लिखा है कि हमारे पूर्वज कौवों के रूप में आते हैं, यानी हमारे पूर्वजों के आने का इंडिकेटर होते हैं कौवे।
लेकिन इधर कुछ साल से कौवों का चिल्लाना कुछ कम हो गया है। शहरों में तो ना के बराबर। तो क्या कुछ सालों से हमारे पूर्वजों ने कौवों से मुह मोड़ लिया है? या हमारे पूर्वजों ने हमसे मुंह मोड़ लिया है। कैसे? किसी ने इसपर ध्यान नहीं दिया। ना ही धर्म के ठेकेदरों ने, ना सरकारों ने और ना ही देश के नागरिकों ने।
कौवा को एक होशियार पक्षी माना गया है, जो हर परिवेश में अपने आपको ढाल सकता है और कौवों ने यही किया भी है। ग्रामीण भारत से लेकर आधुनिक भारत तक कौवों ने अपने आपको ढाला है। फिर अचानक से इनकी संख्या में इतनी गिरावट कैसे आई?
क्या हम इंसान इसके ज़िम्मेदार हैं या भगवान या हमारे पूर्वज? कौवों के प्राकृतिक स्थल नष्ट कर दिए गए हैं, शहरों में बढ़ते प्रदूषण ने कौवों की प्रजनन क्षमता कम कर दी है। खेतों में ज़्यादा कैमिकल की खाद और कीटनाशकों के उपयोग ने तो उनकी जनसंख्या को बहुत तेज़ी से गिराया है।
कौवों को हमने पूर्वजों से जोड़ा है लेकिन क्या हम उन्हें बचाने की कोई कोशिश कर रहे हैं? सच तो यह है कि हमारे पूर्वजों ने जो दुनिया हमें सौंपी थी, उसमें सबके लिए जगह थी लेकिन आज के परिवेश में हम सिर्फ अपने लिए सोच रहे हैं, प्रकृति के बारे तो सोचना छोड़ ही दिया है हमने इस आधुनिक भारत में।
लेकिन जल्द ही कुछ कदम नहीं उठाए गएं तो एक दिन वह भी आएगा जब प्रकृति हमारे बारे में सोचना छोड़ देगी। कौवों की तरह हम भी धीरे-धीरे विलुप्त होते जाएंगे।