हम पहाड़ी औरतें
कुंडली में विरह का दसवां ग्रह लेकर जनमती हैं।
सौर के बारहवें दिन से माँ का विरह,
माँ, जो सुबह निकले तो शाम को लौटा करती है
खेतों, जंगलों से सर पर बोझ और खाली मन लेकर।
उसकी छाती से रिसते दूध में पसीने का नमक घुला होता है,
और आंखों से पिता के विरह में गिरते आंसू।
पिता, जो यादों में दूर देस से लौटे
एक चुप से आदमी की शक्ल में याद आते हैं।
आदमी जो प्यार कम और जेब से गुड़ चना ज़्यादा देता है।
पिता, जो दूर कहीं तराई भाबर में
नमक और तेल कमाने में खप जाते हैं।
माँ, चाचियों के साथ घास लकड़ी के लिए जंगल नापते हुए
घाटी में गूंजते उनके खुदेड़(विरह) गीतों की उदासी,
शादी ब्याह के गीतों में गुन्थी छूटते मायके की टीस,
मेलों के बीच भी मायके लौटी बेटियों के आंसुओ से तर रुमाल
सावन भादों के कोहरे से अनवरत टपकता है वसंत का विरह
सर्दियों की स्याह ठंडी रातों में गूंजता है।
समझ लेती हैं कि ये दसवां ग्रह किसी जप से शांत नहीं होने वाला है।
हम पहाड़ी औरतें
ब्याह के तीसरे दिन सर पर टिन का सन्दूक लादे,
पति को देस के लिए विदा करने जाती हैं
और लौटती राह कुलदेवता से मनाती हैं
कि उसके भाग का विरह कुछ कम हो
और यही मनौती सालों बाद
फौजी बेटे को विदा करके लौटते हुए भी मांगती है।
आखिरी वक़्त भी उनकी आंखों से विरह झांकता है,
जानती हैं कि उस लोक भी गाना पडेगा
“सौणा का मैना,ब्वे कन कै रैणा”।
(माँ ! सावन के महीने मैं कैसे रहूं?)
फोटो साभार- नीरज