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कविता: “सत्य की लाश”

कत्ल हुए जा रहे हैं,

एक के बाद एक

उम्मीद, सभ्यता, मानवता और

अधिकारों का स्वप्न।

 

यह लोकतंत्र का शरीर,

जख़्मी है अब उस भीड़ के

पत्थरों और लाठियों से

जो शिकार बना लेती है

इंसानियत और जम्हूरियत को।

 

खून बह रहा है,

आपके हर तर्क से

धमनियों में डर पेवस्त हो रहा है।

ख्वाहिशों और उम्मीदों के

अंत का यह मंज़र कितना खौफनाक है,

लाशों के ढेर पर शासन करते लोग।

एक लाश थी इसी बीच,

आंखे निकल आई थी जिसकी

बदन पर थें अनेको ज़ख्म,

सारा रक्त बह चुका था

ये सत्य की लाश थी।

 

यह वह वक्त है जब

हिम्मत टूटी नही,

मर चुकी है,

पड़ी है इन्हीं लाशों के बीच।

 

और भी लाशें है,

हमारे बिक चुके स्वाभिमान की,

हर उस बात और जज़्बात की,

हर उस आस और विश्वास की,

हर उस प्रेम और प्रीत की

जो इंसान को इंसान कहलवाती थीं।

 

यह वह मंज़र है जहां,

अब आंखे बस देखती हैं,

बोलने को भीख में चंद लफ्ज़ मिले हैं.

बारिश की बूंदें अब काली हैं,

सूरज की रौशनी अब हथेलियां नहीं छूती

जैसे यह सब कहीं दब गई हो,

या हो सकता है पड़ी है उन्ही लाशो के बीच।

 

आंखें बंद करो तो

ऐसा अभास होता है मानो

नसों में ज़हर कांच के अंशो की भांति

रक्त के साथ दौड़ रही हो।

 

कभी अपनी झूठी दुनिया से फुरसत मिले

तो सोचना उस रक्त के बारे में,

जो गांधी, भगत और चन्द्रशेखर के

बदन से निकलकर

ज़मीं में समाहित हुआ,

जो वक्त के साथ

और काला पड़ता गया।

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