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हमलावरों को टक्कर देने वाली आदिवासी महिलाओं के साहस का जश्न है जनी शिकार पर्व

महिलाओं की सबसे प्राकृतिक पहचान “माँ” की होती है। शायद इसलिए उन्हें जन या जीवन देने वाली कहते हैं। आदिवासियों की बोलचाल में महिलाओं को जनी कहते हैं। पितृसत्ता ने महिलाओं को हमेशा से कोमल और नाज़ुक समझा है और उन्हें लगातार इसी छवि में ढाले रखना चाहा है।

इस मानसिकता से लड़ते हुए, महिलाओं ने भी अपना लोहा मनवाया है। महिलाओं की इसी ताकत, क्षमता और हौसले की झलक हम आदिवासियों के पर्व, जनी शिकार में देखते हैं। 

महिलाओं ने लड़ी थी आज़ादी की सबसे पहली लड़ाई

भारत को अंग्रेज़ों से मुक्त करने में आदिवासियों के योगदान से हम वाकिफ हैं पर इससे पहले भी आदिवासियों, खासकर महिला आदिवासियों ने खूब संघर्ष किए हैं। ऐसी ही एक लड़ाई है, रोहतासगढ़ को बचाने की।

आज छोटानागपुर क्षेत्र में कुडुक की सबसे बड़ी जनजाति है। ऐतिहासिक रूप से यह दक्षिण भारत के माने जाते हैं, क्योंकि इनकी भाषा द्रविड़ियन (तमिल, तेलगु, मलयालम) की श्रेणी में आती है। आदिवासियों के जीवन का मूल्य सादगी और सरलता में है, इसलिए काफी जनजातियां ज़्यादातर एक स्थान से दूसरे पर लगातार बढ़ती रहती थीं।

कुडुक जनजाति भी घूमते हुए उत्तर भारत पहुंची। वहां वे विन्धया घाटी से गुज़रती सोन नदी पर अच्छी परिस्थिति समझकर खेती के लिए बस गए। यहां रोहतासगढ़ किले की स्थापना की जहां जीवन जन्नत की तरह था।

सोन नदी पर बनाया था आदिवासिओं ने अपना जन्नत। सोर्स- http://kurukhworld.com/portray/history/history.html

रोहतासगढ़ को 17वीं सदी में दुश्मनों से खतरा होने लगा। रोहतासगढ़ के खुशहाल समाज को गिराने के लिए एक योजना रची गई। रोहतासगढ़ के किले में एक बाहरी महिला दूध देने आती थी, जिसने हिन्दू शासकों को जानकारी देकर मदद की। इस महिला ने दुश्मनों को बताया कि सरहुल पर्व कुडुक का महोत्सव होता है, जब सब मिल-जुलकर हड़िया (स्थानीय दारू) पीते हैं। यह जानकर कि कुडुक लड़ने की स्थिति में नहीं हैं, दुश्मनों ने उसी समय रोहतासगढ़ पर हमला कर दिया।

आदिवासी महिलाएं हड़िया के लिए मसूल (लोढ़ा) से चावल पीस रही थीं, जब उन्होंने अचानक हुए हमले को भांपा। उन्होंने अपने गढ़ की रक्षा के लिए धीरज, साहस और समझदारी से काम किया। वे पुरुषों का पोषाक पहनकर, दुश्मनों से लड़ने के लिए निकल गईं। किसी ने मसूल से, तो किसी ने गुलेर से लड़ाई की। दुश्मन को यह अंदाज़ा नहीं था कि उनके हमले को टक्कर मिलेगी। अपने जज़्बा से ये जनी रोहतासगढ़ की हिफाज़त करने में कामयाब हुईं। 

महिलाओं ने पूरे ताकत से रोहतासगढ़ किले रक्षा की। सोर्स- http://www.rohtasdistrict.com/ropeway-on-rohtasgarh-fort-in-process/rohtas-garh-fort/

इस लड़ाई के बाद, महिलाएं खुद को साफ करके आराम कर रही थीं। दुश्मन अपनी हार से हैरान थे। दूध देने वाली महिला ने कहा कि जिस तरह से लड़ाकू अपने दोनों हांथो से मुंह धो रहे हैं, इससे मालूम होता है कि लड़ाकू असल में महिलाएं हैं। दुश्मनों ने फिर से हमला कर दिया।अचानक हुए इस दूसरे हमले से थकी हुई महिलाएं इस बार उभर नहीं पाईं और रोहतासगढ़ पर दुश्मनों ने राज बना लिया। इसके बाद आदिवासी छोटानागपुर की तरफ बढ़े और मुंडाओं की मित्रता से वहीं बस गए।

शिकार के लिए जाती महिलाएं

आदिवासी इतिहास में इस घटना को याद रखने, उससे सीखने और महिलाओं की बहादुरी को सम्मान करने के लिए जनी शिकार का पर्व 12 साल में एक बार मनाया जाता है। इस दिन महिलाएं पुरुषों के कपड़े पहनकर, पारंपरिक हाड़ियार जैसे गुलेल, तीर धनुष, कुल्हाड़ी और डंडे लेकर गॉंवों और जंगलों में जंगली जानवरों जैसे जंगली मुर्गी के शिकार के लिए निकलती हैं। पर्व करीब एक सप्ताह तक चलता है, जहां पूरब दिशा के गाँव की महिलाएं शिकार शुरू करती हैं और अलग-अलग दल में पश्चिम की तरफ बढ़ती हैं।

पुरुषों के पारम्परिक कपड़े और हथियार के साथ शिकार के लिए तैयार। सोर्स-https://www.jagran.com/jharkhand/khunti-jani-shikar-in-torpa-17966138.html

इस शिकार के रीति-रिवाज़ से आदिवासी समाज की सहनशीलता और सूझबूझ झलकती है। पूरब से पश्चिम और हमेशा आगे की दिशा में बढ़ना होता है, जो प्राकृतिक नियम से प्रेरित है।

एक गाँव में सिर्फ एक दल आ सकता है, जिससे बहुत ज़्यादा जानवर ना मरे और ना ही दलों के बीच भिड़ंत हो, इसलिए भी महिलाएं सिर्फ 3-4 गाँव में ही जाती हैं, ताकि दूसरे दलों के लिए भी गाँव बाकी रहे।

महिलाएं जिस गाँव में शिकार के लिए जाने वाली होती हैं, उन्हें पहले से खबर कर देती हैं, ताकि कोई उलझने या खतरे की आशंका ना हो। जिन गाँव में वे शिकार के लिए जाती हैं, वहां उनका खुशी और उदारता से स्वागत होता है। इसके साथ ही, हर गाँव से केवल एक ही शिकार लिया जा सकता है।

यह आदिवासियों की विनम्रता, आपसी मेल-मिलाप और प्राकृतिक संतुलन की समझ को दर्शाता है। दिनभर के शिकार के बाद सभी महिलाएं अपने गाँव लौटती हैं और जो भी शिकार किया उससे दावत करती हैं।

नए युग में नई चुनौतियां

बदलते दौर के साथ रिवाज़ों में भी बदलाव आए हैं। महिलाएं पहले पुरुषों की धोती-कुर्ते पहनती थीं पर आज जीन्स कमीज़ पहनती हैं। शहरीकरण और कॉस्मोपॉलिटन के कारण इन रिवाज़ों को नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। बढ़ते शहर जंगलों को कम कर रहे हैं, जिससे महिलाओं को कम शिकार मिलते हैं। शहरी और अन्य समाज के लोगों को महिलाओं के शिकार करने से चिंता होती है।

रांची में मई, 2017 को जनी शिकार के पर्व पर महिलाएं। सोर्स- http://jharkhandstatenews.com/section/photo-story/284

नई चुनौतियों के बावजूद, जनी शिकार का पर्व आदिवासियों को गौरव और साहस देता है। अपने पूर्वजों की याद में महिलाएं अपने ताकत और महत्ता का जश्न मनाती हैं। आदिवासियों का अनुभव यह सिखाता है कि हमें हमेशा सतर्क और डटे रहना है। आज आदिवासी महिलाएं जहां कुपोषण, तस्करी और शोषण का शिकार हो रही हैं, यह पर्व उनके लिए एक प्रेरणा है।

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लेखिका के बारे में: Deepti Mary Minj ने जेएनयू से डेवलपमेंट एंड लेबर स्टडीज़ में ग्रैजुएशन किया है। आदिवासी, महिला, डेवलपमेंट और राज्य नीतियों जैसे विषयों पर यह शोध और काम रही हैं। अपने खाली समय में यह Apocalypto और Gods Must be Crazy जैसी फिल्मों को देखना पसंद करती हैं। फिलहाल यह जयपाल सिंह मुंडा को पढ़ रही हैं।

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