Site icon Youth Ki Awaaz

“कभी साइन लैंग्वेज के प्रति संवेदनशील रहा बॉलीवुड आज इसका मज़ाक बना रहा है”

अगर आपसे यह पूछा जाए कि आप कितने घंटे तक चुप बैठ सकते हैं, तो आपका जवाब क्या होगा? एक घंटे, दो घंटे, एक दिन, एक हफ्ते या फिर? शायद इससे ज़्यादा समय तक आप चुप रहने की सोच भी नहीं सकते हैं।

अच्छा, इसी तरह कल्पना कीजिए कि आप व्यस्त सड़क को पार कर रहे हों और आपको पीछे से आती हुई बस/ट्रक/बाइक/कार की आवाज़ नहीं सुनाई पड़े, तो क्या होगा?

कैसा महसूस होता है आपको जब आप अपनी किसी फीलिंग को चाहकर भी एक्सप्रेस नहीं कर पाते हैं, या फिर आपके बार-बार कहने पर भी कोई आपकी बात नहीं सुनता-समझता है? या फिर आप कहते कुछ हैं और सामने वाला इंसान समझता कुछ और है। उस वक्त बहुत गुस्सा आता है ना? कभी-कभी बेहद लो फील होता है। ऐसा लगता है कि सामने वाला आपको वैल्यू नहीं दे रहा है।

अब ज़रा सोचिए उन लोगों के बारे में, जिन्हें ऐसी परिस्थितियों का सामना किसी एक या दो दिन नहीं, बल्कि पूरी ज़िन्दगी करना पड़ता है। क्या बीतती होगी उनके दिलों पर? हां, कई बार वे किसी महफिल की चर्चा का विषय ज़रूर होते हैं। उनके दर्द, उनकी परेशानी और उनके मन की कुंठा को चंद लोग ही समझ पाते हैं।

पर्सन विथ डिसेबिलिटी को मज़ाक के रूप में पेश करता है बॉलीवुड

जहां तक बॉलीवुड की बात है, तो वहां ज़्यादातर फिल्मों में पर्सन विथ डिसेबिलिटी को एक मज़ाक के पात्र के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। खासतौर से, रोहित शेट्टी निर्देशित ‘गोलमाल’ सीरीज़, साजिद खान निर्देशित ‘हाउसफुल’ सीरीज़, जयदीप सेन निर्देशित ‘क्रेज़ी 4’ (2008), दीपक तिजोरी निर्देशित ‘टॉम-डिक और हैरी’ (2006), डेविड धवन द्वारा निर्देशित ‘मुझसे शादी करोगी’ (2004) जैसी फिल्मों में बेसिर पैर की कॉमेडी के नाम पर निर्माता-निर्देशकों ने कुछ भी पेश करके पर्सन विथ डिसेबिलिटी का जमकर मज़ाक उड़ाया है, जो कि निहायत ही निंदनीय व शर्मनाक है।

फिल्म गोलमाल के एक दृश्य में तुषार कपूर। फोटो सोर्स- Youtube

पुरानी फिल्मों में इस दिशा में दिखी है संवेदनशीलता

हालांकि इसी बॉलीवुड में कई ऐसी फिल्मों के मिसाल भी हैं, जिनमें पर्सन विथ डिसेबिलिटी की तकलीफ और उनकी ज़रूरतों को काफी संवेदनशील और बेहतरीन तरीके से पेश किया गया है।

इन फिल्मों में गुलज़ार द्वारा निर्देशित फिल्म ‘कोशिश’ (1972) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस फिल्म का मुख्य नायक संजीव कुमार और नायिका जया भादुरी, दोनों ही गूंगे-बहरे हैं। इनके अलावा, इस फिल्म में एक और पर्सन विथ डिसेबिलिटी वाला कैरेक्टर है, नारायण चाचा का, जिसे ओम शिवपुरी ने निभाया है।

गुलज़ार साहब की लाजवाब स्क्रिप्ट और इन तीनों ही अभिनेताओं के बेजोड़ अभिनय से सजी ‘कोशिश’ ने जितने संवेदनशील, खूबसूरत और लाजवाब तरीके से पर्सन विथ डिसेबिलिटी की समस्याओं को पर्दे पर उतारा है, उतना शायद अब तक किसी भी फिल्म ने नहीं किया है।

फिल्म कोशिश में जया भादुरी और संजीव कुमार।

दो लोग जो बोल-सुन नहीं सकते हैं और एक इंसान जो देख नहीं सकता है, बावजूद इसके वे तीनों आपसी सहयोग और सामंजस्य से भरोसे और उम्मीदों की एक ऐसी दुनिया रचते हैं, जिसमें उन्हें अपने सपनों को पूरा करने के लिए किसी अन्य सहारे की ज़रूरत ही नहीं होती है। इस फिल्म का सबसे खूबसूरत हिस्सा इसका अंतिम भाग है, जो आपके मन के तारों को भीतर तक झंकृत कर देगा। मेरे विचार से हर किसी को यह फिल्म एक बार ज़रूर देखनी चाहिए।

‘कोशिश’ के अलावा, बालू महेंद्र द्वारा निर्देशित ‘सदमा’ (1983), राकेश रोशन निर्देशित ‘कोई मिल गया’ (2003), संजय लीला भंसाली द्वारा निर्देशित ‘खामोशी’ (1996), ‘ब्लैक’ (2005) व ‘गुज़ारिश’ (2010), नागेश कूकनूड़ द्वारा निर्देशित ‘इकबाल’ (2005), आमिर खान की ‘तारे ज़मीं पर’ (2007), अनुराग बासु की ‘बर्फी’ (2012), सोनाली बोस की ‘माग्रेरिटा विद अ स्ट्रॉ’ (2015) आदि प्रमुख हैं।

इन फिल्मों ने हमें पर्सन विथ डिसेबिलिटी की समस्याओं को समझने और उनसे बेहतर तरीके से डील करने में काफी मदद की है। जैसे- ‘तारे ज़मीं पर’ फिल्म ने लर्निंग डिसेबिलिटी वाले बच्चों के प्रति उनके पेरेंट्स और टीचर्स का नज़रिया बदलने और उन्हें सही गाइडेंस देने में काफी मदद की। इसी तरह ‘कोई मिल गया’ मूवी मानिसक रूप से बीमार बच्चे के प्रति परिवार और समाज का क्या नज़रिया होना चाहिए, यह बताती है।

हम जैसे तथाकथित सामान्य लोग इस बात का अंदाज़ा शायद ही लगा पाएं कि पर्सन विथ डिसेबिलिटी की दुनिया कितनी अलग और मुश्किलों भरी होती है। हमें शारीरिक रूप से उनकी जो समस्याएं दिखाई पड़ती हैं, केवल वे उन्हीं से दो-चार नहीं होते, बल्कि इसकी वजह से हर पल जिस मानसिक और भावनात्मक द्वंद से वे गुज़रते होते हैं, उनका हम अनुमान भी नहीं लगा सकते हैं।

पर्सन विथ डिसेबिलिटी को प्राय: दो स्तरों पर संघर्ष करना पड़ता है। एक तो घर-परिवेश और दोस्तों के बीच, जहां अक्सर इन्हें भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण का सामना करना पड़ता है, समकक्षी बच्चे इनका मज़ाक उड़ाते हैं, इन्हें तरह-तरह के कमेंट्स सुनने पड़ते हैं। दूसरा भावनात्मक स्तर पर और स्वयं की दुनिया में हो रही हलचल के बीच संतुलन बनाते हुए जीवन संघर्ष और उस जीवन संघर्ष से बाहर निकलने की चुनौती।

पर्सन विथ डिसेबिलिटी के कई रूप होते हैं, उनमें से कइयों के बारे में तो हमें जानकारी है लेकिन अब भी कई तरह की मानसिक-शारीरिक डिसेबिलिटी हमारे ज्ञान की पहुंच से परे है। ऐसे में बहुत ज़रूरी है कि डिसेबिलिटी या फिर ऐसी किसी भी संवेदनशील मसले को फिल्म का फिर कला के अन्य किसी भी माध्यम से अभिव्यक्त करने से पहले उसके बारे में पर्याप्त रिसर्च किया जाए।

उनसे जुड़े हर तरह के सकारात्मक या नकारात्मक पहलुओं के बारे में गहराई से विश्लेषण किया जाए। साथ ही, ऐसी फिल्मों को पर्दे पर रिलीज़ करने से पूर्व संबंधित एक्सपर्ट्स को दिखाया जाये, ताकि अगर कुछ चूक भी रह गयी हो, तो उन्हें सुधारने का पर्याप्त मौका निर्माता-निर्देशक के पास हो।

याद रखिए, आपके या हमारे लिए वह एक ‘सबजेक्ट’ होगा लेकिन आपके या हमारे द्वारा की गई एक छोटी-सी भूल उन्हें मज़ाक या दुर्व्यवहार का ‘ऑब्जेक्ट’ बना सकती है।

Exit mobile version