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महिला सशक्तिकरण के नारों को ज़मीनी स्तर पर लाने की ज़रूरत

कितने खोखले नज़र आते हैं ये नारे

अगर आपको भी अपने समाज के इर्द-गिर्द ऐसी गतिविधियां नज़र आती हैं, तो आप पितृसत्ता समाज में जीवनयापन कर रहे हैं। यह कहा जाता है कि नारी को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त है लेकिन जब सच के धरातल पर कोई नारी पुरुष के समकक्ष नज़र नहीं आती है तो ये नारे महज़ शब्दों से युक्त कोरे कागज़ की शोभा बढ़ाते हैं। असल जीवन में ये व्यवहारों में महज़ कोरे बनकर रह जाते हैं।

पुरुषप्रधान समाज की बड़ी समस्या रही है उनके स्थापित वर्चस्व को महिलाओं द्वारा चुनौती दिया जाना।

आज़ादी के 7 दशक बाद व 21वीं सदी में भी लड़कियों को अपना हमसफर चुनने की आज़ादी नहीं है। अगर कुछ लड़कियां अपनी अदम्य साहस, सशक्तिकरण, निर्भीकता का परिचय देते हुए पुरुषवादी समाज के ताने-बाने को चुनौती देती हैं, तो उनको ऑनर किलिंग का शिकार होना पड़ता है।

आज भी महिलाओं का कम प्रतिशत ही प्रत्यक्ष रूप से अपना योगदान अर्थव्यवस्था, राष्ट्र के नव निर्माण एवं उन्नति में दे रहा है। कल्पना करिये अगर 50 प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी इन क्षेत्रों में प्रत्यक्ष तौर पर होती तो, शायद आज भारत विकासशील देश ना होकर विकसित होता।

एक तरफ हम ढपली बजाकर महिला सशक्तिकरण का पाठ पढ़ाते हैं, दूसरी तरफ सशक्तिकरण का पाठ पन्नों तक ही सीमित कर देते हैं। ज़मीनी स्तर की हकीकत है सिर्फ हवा-हवाई बाते और तथाकथित पुरुषों की दकियानूसी मानसकिता। संसद व विधानसभा में बैठे प्रतिनिधि जो महिला हितैषी का तमगा लिए हैं, वे वर्चस्व की लड़ाई में मदमस्त हैं।

सांसद जूता मारते हैं तो विधायक जी भी कनपटी पर दुई धपड़ जमा देते हैं। ऐसी संस्कृति व प्रतिनिधित्व हमारे देश को किस ओर ले जाएगा?क्या ऐसा प्रतिनिधित्व देश के वर्तमान दशा को नई दिशा की ओर ले जाने में सक्षम है?

महिलाएं पुरुषों के वर्चस्व को दे रही है पटखनी

वर्तमान भारत सरकार द्वारा ऐसी कई योजनाएं एवं नीतियां लागू हैं जैसे- प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, स्टैंड अप इंडिया, प्रधानमंत्री उज्वला योजना, स्वच्छ भारत अभियान, जिनके द्वारा महिलाओं का चौमुखी व सतत विकास का मूर्त रूप आकार लेता हुआ नज़र आ रहा है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों से नारी जो कि विश्व की आधी आबादी है, पुरुषों के स्थापित वर्चस्व को हर एक क्षेत्रों में चुनौती देती नज़र आ रही है। वर्तमान समय में कई ऐसे क्षेत्र जहां महिलाएं पुरुषों के वर्चस्व को पटखनी दे रही है।

महिला और पुरुष सभ्य समाज रूपी रथ के दो पहिये हैं, जिनके आपसी तालमेल ना होने से एक शिक्षित, सशक्त एवं विकसित राष्ट्र की परिकल्पना नहीं की जा सकती है। आज के आधुनिक युग के समय की मांग है कि हम नव युवा अपनी रूढ़िवादी, संकुचित, दकियानूसी मानसकिता का चोला उतार फेंके। तभी भारत का आम जनमानस दुनिया के साथ कदमताल कर सकता है।

समाज में ऐसा निर्भय मौहाल बनाने की ज़रूरत है, जहां नारी स्वत्रंत रूप से फले-फुले एवं अपनी क्षमता के अनरूप, आबोहवा में सुंगधित का भाव मिश्रित करते हुए समाज के हर क्षेत्र को प्रज्वलित करे और समाज को नई दिशा की ओर पहुंचाये।

तेरे अंदर ना जाने कितने शक्तियों का वास है,

फिर भी ना जाने क्यों तुम्हें आज़ादी की आस है।

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