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“जब पूरा देश एक सुर में बोलने और सोचने लगेगा तो जनतंत्र कैसे टिक पायेगा”

क्या सही और गलत के बीच भी कुछ है? क्या यह ज़रूरी है कि किसी मुद्दे पर आपका कोई एक पक्ष हो? क्या इसके मझधार या इसके अलावा भी कोई विकल्प होते हैं? ये सवाल हैं, जो हमें खुद से पूछने चाहिए।

मौजूदा हालात देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि आज हमारे देश में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ गई है, जो बिना कुछ सोचे-समझे सीधा निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं और इसी के चलते मानवता के सारे उसूलों को तार-तार कर देते हैं।

आज देश एक ही सुर में बात कर रहा है। कभी हमने एक मिनट के लिए यह सोचा है कि आखिर ऐसा क्या हो गया कि पूरा देश इस मानसिकता का शिकार बन गया। वहीं सत्ता के ठेकेदार अपने निर्णय को जनता की चाह का अमलीजामा पहनाकर राजनीतिक रोटियां सेंकने में तन्मय हैं। वे इस बात को भूल गए हैं कि जिसे आज वह अपनी उपलब्धि बता रहे हैं, वह असल में मानवता के उसूलों का उल्लंघन और उनके अधिकारों का हनन है।

मीडिया नहीं निभा रहा अपनी ज़िम्मेदारी

आश्चर्यजनक है कि हमारी राजनीति इस स्थिति में पहुंच गई है, जब लोगों में द्वेष भावना का बीज बोना और असहमति प्रकट करने वाले को देशद्रोही करार देना आम हो गई है। जब देश की एक बड़ी पार्टी सशक्त अवस्था में हो तो लाज़मी है कि पार्टी के नेताओं के बयान को मीडिया से लेकर हर व्यक्ति तवज्ज़ो देगा। खासकर तब जब विपक्ष कमज़ोर हो।

लेकिन क्या इसका अर्थ यह माना जाए कि जो सूचनाएं और सन्देश बड़ी पार्टी पहुंचाना चाहती हैं, उसे हम बिना सोचे-विचारे ग्रहण कर लें। मैजिक बुलेट थ्योरी का सिद्धांत आज के संदर्भ में भी असरदार दिखता है, जिसके अनुसार किसी जन माध्यम से प्रसारित संदेश सीधे श्रोताओं द्वारा ग्रहण किए जाते हैं, जिनका प्रभाव सर्वाधिक होता है।

कैसे गुपचुप तरीके से होता है मीडिया का दुरुपयोग?

फोटो प्रतीकात्मक है। फोटो सोर्स- Getty

इतिहास हमें बार-बार याद दिलाता रहता है कि सरकारें किस प्रकार मीडिया और पत्रकारों का इस्तेमाल अपना एजेंडा पूरा करने के लिए करती हैं। शीत युद्ध (1940 के दशक के अंत) के शुरुआती दिनों में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने एक गुप्त परियोजना “ऑपरेशन मॉकिंगबर्ड” के तहत दुनियाभर में विरोधियों की तमाम गतिविधियों का पता लगाने के लिए जासूस के तौर पर सैकड़ों पत्रकारों की नियुक्ति की।

पत्रकारिता के इतिहास में इसे खोजी पत्रकारिता का नाम दिया गया, ताकि किसी पत्रकार के पकड़े जाने पर उनपर कोई शक ना जाए। यही नहीं पत्रकारिता के सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित पत्रकारों को भयादोहन के तहत इस ऑपरेशन में ज़बरदस्ती लाया गया।

कौन भूल सकता है कि किस प्रकार स्पेन और संयुक्त राज्य अमरीका के बीच हुए युद्ध में “रिमेम्बर द मैंन, टू हैल विद स्पेन” से जुड़ी तमाम सुर्खियों ने लोगों में इस कदर बदले की भावना को प्रेषित किया, जो जंग को बुलावा देने का असल कारण बनी।

आज भारतीय मीडिया सत्ताधारी पार्टी के आगे घुटना टेक चुका है। टीवी न्यूज़ चैनल खबरों का माध्यम कम और राजनीतिक रंगमंच ज़्यादा लगाने लगे हैं।

क्या सत्ताधारियों से मतभेद रखने का अर्थ देशद्रोही हो जाना है?

यदि हम सब एक जैसा खाए, पहने, पढ़ें, एक जैसा जीवन जीने लग जाएं तो आप इसे क्या नाम देंगे? अकसर माना जाता है कि जब-जब सत्ता विपक्ष किसी मुद्दे पर टकराते हैं, तो वे विभिन्न विचारधाराओं, बातचीत के लिए माहौल और विकास के लिए रास्ता तय करते हैं। 2019 में राजनीतिक हालात कुछ ऐसे बन चुके हैं कि राजनेता अपनी ही पार्टी के गलत निर्णयों और नीतियों के विरुद्ध नहीं बोल सकते। अगर कोशिश भी करें तो उनकी आवाज़ को दबाने की पूरी कोशिश की जाती है।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब दो मनुष्य सम्पूर्ण रूप से एक जैसे नहीं हो सकते तो करोड़ों लोगों के विचार एक जैसे कैसे हो सकते हैं? अब ज़रा सोचिए, जब पूरा देश एक सुर में बोलने और सोचने लगेगा तो जनतंत्र कैसे टिक पायेगा?

लोकतांत्रिक राष्ट्र के अहम स्तंभों को राजनीतिक शिकंजे से निकलने की ज़रूरत

इसमें कोई शक नहीं है कि राजनीतिक पार्टियों ने समय-समय पर अपने-अपने ढंग से सरकारी संस्थाओं और संगठनों का इस्तेमाल किया है। फिर चाहे वह कॉंग्रेस हो या भाजपा। लोकतंत्र की जीवनाधार संस्थाओं की भागीदारी ही वर्तमान परिस्थितियों को बदलने में सहायक सिद्ध हो सकती है।

सुप्रीम कोर्ट, सीबीआई, ईडी, आरबीआई तथा मीडिया जब तक राजनीतिक शिकंजे में जकड़े रहेंगे, माकूल परिस्थितियों की उम्मीद करना बेकार होगा।

इस प्रक्रिया में नागरिकों की भूमिका इसलिए और भी अहम हो जाती है, क्योंकि उनकी आवाज़ से ही इन संस्थाओं को बल मिलता है और सामाजिक न्याय की मांग ज़ोर पकड़ती है। अगर सब एक जैसे ही बन गए तो ज़ुर्म और अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने वाला कौन आयेगा? जो है उसे भी दबा दिया जायेगा।

आज ज़रूरत है हम सबको अपने अंदर झांककर देखने की, खुद से पूछने की कि आखिर हम कर क्या रहे हैं, लोकतंत्र में हमारी क्या भूमिका रह गई है? ज़रूरत है एक साझे हुंकारे की जो आपके, हमारे, हम सबके अधिकारों की आवाज़ को बुलंद कर सत्ताधारियों को सोचने पर मजबूर कर सके।

अंत में पाश की कविता की कुछ पंक्तियां-

हम लड़ेंगे

कि लड़े बगैर कुछ नहीं मिलता

हम लड़ेंगे

कि अब तक लड़े क्यों नहीं।

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