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इज़रायल और फिलिस्तीन की राजनीति में क्या होंगे भारत के कूटनीतिक कदम?

हमने नाज़ीवाद, गाँधीवाद और लेनिनवाद जैसे शब्दों को सुना होगा लेकिन पिछले कुछ दशकों से इज़रायलवाद का भी उदय हुआ है। शायद आज के युवा अभी इस नई सोच से अनजान हैं।

इज़रायली यहूदी लोग, जो कभी यूरोप के अलग-अलग हिस्सों में रहते थे, उन्होंने फिलिस्तिनियों को उनके ही घर से बेघर कर दिया और फिलिस्तीन को इज़रायल घोषित कर दिया।

इस मामले में बाद में UN को हस्तछेप करना पड़ा जिसके बाद फिलिस्तिनियों के हाथ आधा फिलिस्तीन (west bank) लगा। इस बंटवारे के बाद भी कुछ शांत नहीं हुआ और काफी विध्वंस के बाद फिलिस्तिनियों की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करके उसे इज़रायल में शामिल कर दिया गया।

क्या है इज़रायलवाद

हम इज़रायलवाद को ऐसे समझ सकते हैं जैसे, हम अपने स्वार्थ और फायदे के लिए दूसरे लोगों को मुश्किलों में डाल दें या फिर उनके अधिकार छीन लें।

19वीं सदी के समय फिलिस्तीन में सिर्फ 3% यहूदी रहा करते थे। यूरोप में यहूदियों के दमन के चलते, यहूदी फिलिस्तीन की धरती पर बसते चले गए और उनकी संख्या 1947-48 तक 30% हो गई। फिर उन्होंने फिलिस्तीन को इज़रायल बनाकर वहां के मूल निवासियों को बेघर कर दिया।

आज जब इज़रायल में यहूदियों की आबादी 74% हो गई है तो इस ज़मीन को हथियाने की नीति को हम इज़रायलवाद कह सकते हैं। फिलिस्तीन और इज़रायल का यह ज़मीन विवाद आज UN में है।

भारत की फिलिस्तीन नीति

हालांकि भारत ने हमेशा से ही फिलिस्तीन का समर्थन किया है। 1948 में इज़रायल बनने के बाद कई दशकों तक भारत ने इज़रायल को देश नहीं माना था लेकिन 1971 और कारगिल के युद्ध में इज़रायल ने भारत की काफी मदद की जिसके बाद भारत और इज़रायल के आपसी रिश्तों में काफी सुधार हुआ है।

भारत ने इज़रायल के तेल अवीव  में राजनयिक भेजकर इज़रायल को देश की संज्ञा दी। आज इज़राइल भारत का दूसरा सबसे बड़ा सैन्य सामग्री देने वाला देश है

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ इज़रायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू, फोटो- Getty images

2014 के बाद भारत की कूटनीति

जग ज़ाहिर है कि भारत और इज़रायल आज अच्छे दोस्त हैं। अकसर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की दोस्ती चर्चा में आती रहती है। प्रधानमंत्री मोदी इज़रायल जाने वाले पहले प्रधानमंत्री बने।

गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी पहले भी इज़रायल गए थे और मोदी सरकार के कई मंत्री भी इज़रायल का दौरा कर चुके हैं। आपको बता दें कि पूर्व विदेश मंत्री स्व. सुषमा स्वराज भी इज़रायल गई थीं। वहीं गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी इजरायल की यात्रा की थी।

क्या मोदी सरकार इज़रायल से बढ़ती दोस्ती के चलते फिलीस्तीन के साथ अपना स्टैण्ड बदलेगी? इस सवाल का जवाब तो भविष्य के गर्भ में है।

RSS का इज़रायल को समर्थन एवं कश्मीर

जहां भारत सरकार और गाँधी ने भी इज़रायल को कभी समर्थन नहीं दिया वहीं 1948 से ही RSS (विनायक दामोदर दास ‘सावरकर’ और माधव सदाशिव गोलवारकर) ने हमेशा से ही इज़रायल की वकालत की। शायद इज़रायल की तरफ भाजपा के झुकाव की यह वजह हो सकती है।

इज़रायल से बढ़ते सम्बंधो से हमने कुछ तो सीखा होगा। जब हम बार-बार इज़रायल जाते हैं तो वहां से कुछ तो सीखकर या लेकर आते होंगे। फिर चाहे वह वहां का व्यापार हो या वहां की नीतियां।

अनुच्छेद 370 जो दूसरे राज्यों के लोगों को कश्मीर में ज़मीन खरीदने से प्रतिबंधित करता था, उसे आज सरकार ने धराशाई कर दिया है। अब दूसरे राज्य के लोग वहां जाकर ज़मीन खरीदेंगे, कब्ज़ा जमाएंगे और यह सीधे-सीधे इज़रायलवाद की देन हो सकती है।

कितना अच्छा है हमारा इज़रायल हो जाना ? ‘इज़रायलवाद’

बहुत सोच-विचार करने के बावजूद इस प्रश्न का जवाब मुश्किल से ही मिलता है। व्यापार ,टेक्नॉलोजी, सैन्य शक्ति, अन्य चीज़ों में भी हमने इज़रायल की मदद से तरक्की की है, तो फिर हमें इज़रायल से क्या नुकसान हो सकता है? लेकिन हमें जानना होगा इज़रायली होना तब बुरा नहीं है यदि हम स्वार्थी आत्म केंद्रित हैं।

अगर हम सिद्धांतो को किनारे करके विकास चाहते हैं तो इज़रायली होना इतना बुरा नहीं है। यही इज़रायलवाद की परिभाषा हो सकती है।

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नोट: लेखक ने इस आर्टिकल को लिखने के लिए  राजेन्द्र अभ्यंकर की किताब  The evolution and future of India and Israel relations की मदद ली है।

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