नेशनल हाईवे-86 के साथ-साथ चलता हुआ कानपुर का सीमावर्ती इलाका, जो आगे हमीरपुर में यमुना-तट को स्पर्श करता हुआ जल समाधि ले लेता है और आगे नए अवतार में हमीरपुर कहलाता है।
यमुना से करीब 10 किलोमीटर पहले ही हमीरपुर का रेलवे स्टेशन है। यूं तो रेलवे स्टेशन हमीरपुर का है पर है कानपुर-नगर में। इसी रेलवे स्टेशन से 1.5 किलोमीटर दूरी पर छोटा सा गाँव है बिलगवां, आबादी मुश्किल से 600 लोगों की होगी आज की तारीख में।
बिलगवां यूं है तो बहुत छोटा सा किन्तु ना जाने कितनी ही रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानियां इस गाँव से जुड़ी हैं। करीब 2 दशक पहले साज़िशों और रंजिशों का दौर यहां चला करता था। उस दौर में यह वह गाँव था, जहां घर में खाने के लिए निवाले भले ना हो पर कारतूस, तमंचा, अद्धी इधर-उधर अलमारियों या भूसे की ढेर में पड़े रहते थे।
खाली कारतूस को भरकर ठाय-ठाय करने वाले किनते ही कुशल कारीगर ज़रूर घर-घर में थे। वह दौर डकैतों का था, वह दौर ताकतवर और मुस्तैद बने रहने का भी था। अहम, वहम और वर्चस्व की लड़ाई अक्सर खूनी हो जाती थी। वर्षों बाद गाँव के तालाब भले सूख चुके हैं पर साज़िशे आज भी ज़िन्दा हैं।
वर्तमान थोड़ा खामोश है किन्तु पूरी तरीके से नहीं। हमीरपुर रेलवे स्टेशन के आलावा बस कच्ची सड़के गाँव की हम सफर थीं। एक ओर बरीपाल और दूसरी तरफ सजेती बीच में धीरपुर। विकास सुना था कि कानपुर में रहता था। जब भी आता था हमीरपुर की तरफ निकल जाया करता था।
इस दौर में गाँव में स्कूल नहीं था। हां, करीब 2 किलोमीटर का पैदल कच्चा रास्ता नापकर बरीपाल में एक आध स्कूल थे, डॉक्टर भी पर रंजिशें जवान थीं और सुरक्षा सवाल थी। सो घर से दूर जाना ठीक नहीं था, चूंकि उस समय दद्दू गाँव के प्रधान हुआ करते थे, इसलिए घरवालों ने एक मास्टर साहब से बात की।
मास्टर साहब तो बाद में प्रचलित हुआ हम तो अचार जी कहते थे। “आचार्य जी” का बिगड़ा हुआ रूप किन्तु ज़ुबान फिसलती चली जाती थी। वह थे धीरपुर के राजयपाल मास्टर साहब उर्फ राजयपाल अचार जी थे। वह साइकिल चलाकर हमारे गाँव आते और हमारे घर के बाहर नीम के पेड़ के नीचे बैठा सबको पढ़ाया करते। बाहर नीम के पेड़ के नीचे इसलिए कि गाँव के कुछ और जागरूक लोग भी अपने बच्चों को प्रारम्भिक शिक्षा दे सके।
“कच्चा एक” और “पक्का एक” कुछ ऐसे ही हमारी पढ़ाई शुरू हुई। घर के सारे बच्चे जो गाँव में थे। मैं, बड़े भाईसाहब, चाचा जी के बच्चे गाँव के कुछ अन्य परिवारों के बच्चे भी। बस खड़ियां और एक स्लेट (पाटी के नाम से जानी जाती थी, लकड़ी की बनी हुई) बस इसी सहारे राजयपाल अचार जी ने हमें कक्षा 2 तक पहुंचा दिया।
यह हमारे वरिष्ठ परिजनों की जिजीविषा ही थी कि गाँव में शिक्षा के प्रति जागरूकता आई। राजयपाल अचार जी के योगदान को, उनके कठिन परिश्रम को ना हम, ना हमारे परिजन और ना ही हमारा गाँव कभी भूल पायेगा। जिस गाँव में लोग कहकरा सीखने से पहले माँ और बहन के हर प्रकार के विशेषण सीख जाया करते थे।
क का मतलब-कमीने, कुत्ते और ब का मतलब-बहन… पढ़ते थे, उस दौर में राजयपाल आचार जी ने हमें पढ़ाया और उस माहौल से अलग होकर विकसित होने में मदद की।
आगे की पढ़ाई बरीपाल के सरस्वती शिशु मन्दिर में भी की, करीब 2-3 साल। उसके बाद कानपुर शहर में की, गोरखपुर के इंजीनियरिंग कॉलेज में भी किन्तु राजयपाल अचारजी आज भी दिल में बसते हैं। आज भी जब गाँव जाना होता है और राजयपाल अचार जी को खबर हो जाती है तो कभी वो मिलने चले आते हैं, कभी हम चले जाते हैं।
वही प्यार और वही स्नेह आज भी जीवित है। राजयपाल अचार जी बड़े भाईसाहब द्वारा अखबारों में लिखे गए आलेखों की कतरन आज भी अपने पास रखते हैं, लोगों को भी बताते हैं। वर्षों से लगतार गंगा नदी के लिए कलम और जन आंदोलनों के ज़रिये, बड़े भाईसाहब के सतत प्रयासों और लड़ाई के उद्देश्यों का समर्थन करते हुए गर्व से भी भरे नज़र आते हैं।