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बाटला हाउस: “थोड़ा निराश करती मगर कई हद तक सच्चाई दिखाती फिल्म”

मशहूर अभिनेता जॉन अब्राहम की नई मूवी बाटला हाउस एक ऐसी कथा है, जो समाज में फैली हुई विक्टिमहुड पॉलिटिक्स को सारेआम एक्सपोज़ करती है। वही इस फिल्म पर कुछ सवाल भी हैं पर इस फिल्म की अच्छी बातें भी बहुत हैं।

हालांकि बाटला हाउस एनकाउंटर की एक सबसे महत्वपूर्ण बात इन्होंने इस फिल्म में नहीं बताई है कि नैशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन ने अपनी जांच में इस एनकाउंटर को असली माना था। यह भी कहा था कि मोहनचंद शर्मा को सामने से गोली लगी थी ना कि पीछे से। जो कि कुछ लोग दिल्ली पुलिस को बदनाम करने के लिए कह रहे थे।

मैं इनका दुश्मन नहीं हूं

इस मूवी में आखिरी सीन में जॉन अब्राह्मण उर्फ संदीप यादव ने एक एक बहुत अच्छी बात कही थी, जिससे मैं सहमत हूं कि इन लोगों का दुश्मन मैं नहीं हूं बल्कि 2 किस्म के लोग हैं,

जो मुखालिफत करते हैं वे दुश्मन कैसे? वह सबको पता है पर जो इनकी वकालत करते हैं ये वहीं लोग हैं, जो उन्हें विक्टिम पॉलिटिक्स का शिकार बनाते हैं।

इस फिल्म में देख सकते हैं कि किस तरह राजनीतिक दल एक आतंकवादी, जिसने शहीद मोहन चंद शर्मा पर गोली चलाकर उनकी हत्या की उसे बचाने की कोशिश करता है। यहां तक कि ये लोग इन्हें उकसाते भी हैं कि हम चाहे कितना भी बुरा करें, हमें बचाने वाले हैं। जब इस तरह की भावना आ जाती है तो व्यक्ति गुनाह करने से पहले नहीं सोचता और यह बात एक वर्ग के लिए नहीं सब पर लागू होती है।

फिल्म संजू में रणबीर कपूर ने खिड़की वाले पत्रकारों का ज़िक्र किया था, जो एक ही दिन में जजमेंट पास कर देते हैं। ऐसा ही कुछ इस फिल्म में भी था, जब इस फिल्म में मृणाल ठाकुर के साथ काम करने वाली पत्रकार बिना किसी सबूत के यह कह देती हैं कि फर्ज़ी एनकाउंटर था। भला उसे कैसे पता होगा और यही बकवास उसका संपादक भी बोलता है।

क्या किसी फर्ज़ी एनकाउंटर में पुलिस वाला मरता है?

यह भी आखिरी ही सीन में जॉन अब्राहम उर्फ संजीव कुमार ने पूछा था पब्लिक प्रॉसिक्यूटर से कि मुझे कोई एक ऐसा फर्ज़ी एनकाउंटर बता दो, जहां एक आरोपी ज़िंदा पकड़ा जाए और एक पुलिस वाला मारा जाए।

मेरा एक सवाल है, क्या हम तटस्थ रहकर सोचना भूल चुके हैं? क्योंकि इस फिल्म में 2 किस्म के लोग थे, एक वे जो दिल्ली पुलिस को कातिल कह रहे थे, जिनकी वजह से संजीव कुमार और उनके साथियों पर कार्रवाई हुई और दूसरे वे जो पुलिस के साथ थे, जिनकी वजह से संजीव कुमार जी को प्रेसिडेंट मैडल और मोहन चंद शर्मा को मरणोपरांत अशोक चक्र मिला। पर तटस्थ रहकर सोचने वाली इस कहानी में थे ही नहीं, जो मुझे दुख देता है।

फिल्म में थोड़ी राजनीति

फिल्म में थोड़ी सी राजनीति मैंने देखी है, जब सलमान खुर्शीद, अरविंद केजरिवाल के बयान दिखाए गाए। हालांकि उससे भी ज़्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि एक सीन में गृह मंत्री चितम्बरम साहब का किरदार निभाने वाला अभिनेता, फोन पर एक मैडम से हुक्म ले रहा था, जैसे वह प्रधानमंत्री से बात कर रहा हो। अब यह मैडम कौन हैं, सबको पता है। तो क्या यह सीन आपत्ति लायक है? मैं कहता हूं, हां है। निर्माताओं को इस सीन पर थोड़ी चर्चा करनी होगी।

पर अंत में यहीं कहूंगा कि कहानी ज़बरदस्त थी, जो हमारे देश के लोगों के दो किस्म के दुश्मनों का सच दुनिया को दिखाती है।

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