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“कैलाश सत्यार्थी ने साबित किया कि पुरस्कार से कहीं ज़्यादा बड़ा होता है राष्ट्र”

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित श्री कैलाश सत्यार्थी मुख्य अतिथि थे। सीनेट हॉल में यह समारोह होना था। हॉल के मुख्य द्वार पर कुलपति समेत कई शिक्षक उनकी आगवानी के लिए मौजूद थे। स्वागत के बाद जब कुलपति महोदय उन्हें अंदर लेकर जाने लगे, तभी श्री सत्यार्थी ने उनसे जो मांग की, वह उनके लिए अप्रत्याशित थी।

आमतौर पर विश्वविद्यालय में आने वाला कोई अतिथि ऐसी मांग नहीं करता। कैलाश सत्यार्थी ने कुलपति महोदय से कहा कि वे दीक्षांत समारोह में जाने से पहले शहीद लाल पदमधर की प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित करना चाहेंगे।

इसके बाद वे सीनेट हॉल से पैदल विश्वविद्यालय परिसर में बने छात्र संघ भवन पहुंचे और वहां स्थापित शहीद लाल पदमधर की प्रतिमा पर माल्यार्पण और पुष्पांजलि अर्पित की।

कौन थे लाल पदमधर?

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र शहीद लाल पदमधर सिंह के बलिदान को अच्छी तरह जानते हैं। 1942 में गाँधी जी के “असहयोग आंदोलन” के दौरान अंग्रेज़ों की गोलियों से शहीद हुए लाल पदमधर तब विश्वविद्यालय के स्नातक के छात्र थे।

11 अगस्त 1942 की बात है। लाल पदमधर सहित करीब तीन दर्जन क्रांतिकारी छात्रों ने छात्र संघ भवन में कलेक्ट्रेट पर कब्ज़ा कर इलाहाबाद को अंग्रेज़ों से आज़ाद कराने की शपथ ली थी। योजना के मुताबिक अगले दिन 12 अगस्त 1942 को जुलूस की शक्ल में छात्रों का हुजूम कलेक्ट्रेट की तरफ बढ़ने लगा।

जुलूस का नेतृत्व तिरंगा लेकर विश्वविद्यालय की छात्राएं कर रही थीं। अंग्रेज़ों को लाल पदमधर और उनके साथी क्रांतिकारियों की योजना की भनक लग गई। जुलूस को आगे बढ़ने से रोकने की कोशिश होने लगी। चेतावनी के बाद भी छात्राओं के ना रुकने पर फिरंगी पुलिस ने उन पर बंदूके तान दी।

तभी भीड़ में लाल पदमधर निकले और अंग्रेजों को ललकारा,

“मारो, देखते हैं कितनी गोलियां हैं फिरंगियों की बंदूकों में”

और तिंरगा लेकर आगे बढ़ने लगे। तभी एक गोली उनके सीने में आकर लगी और वे शहीद हो गए। लोग बताते हैं कि मरते दम तक इस वीर बलिदानी ने तिंरगे को हाथ से नहीं छोड़ा था।

फोटो क्रेडिट: अरविंद कुमार/ KSCF

दीक्षांत समारोह में प्रतिमा पर पुष्प चढ़ाना बना चर्चा का विषय

पूरब के इस ऑक्सफोर्ड के छात्रों और शिक्षकों को श्री कैलाश सत्यार्थी के लाल पदमधर की प्रतिमा पर पुष्पांजलि की बात पता चलने पर चर्चा शुरु हो जाती है। देश को दो प्रधानमंत्री, एक राष्ट्रपति और दर्ज़नों मुख्यमंत्री और कैबिनेट मंत्री देने वाला इलाहाबाद विश्वविद्यालय अपनी चर्चा और बहस-मुहाबिसों के लिए ही जाना जाता है।

एक छात्र ने कौतुहल से पूछा,

सत्यार्थी जी लाल पदमधर को पुष्पांजलि अर्पित करके आए हैं?

तो दूसरे ने जवाब दिया,

हां, आज पदमधर को पुष्पांजलि अर्पित की और कल अल्फ्रेड पार्क जाकर चंद्रशेखर आजाद को भी पुष्प अर्पित किया था।

तीसरे ने कहा,

चंद्रशेखर आजाद को पुष्पांजलि की तो आज अखबार में खबर भी छपी है।

वहीं पास खड़े एक और ज्ञानी छात्र ने गूगल के ज़रिए एक और रहस्योदघाटन कर दिया,

सत्यार्थी जी इसी तरह एक कार्यक्रम में जब कलकत्ता गए थे, तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस के घर जाकर उन्हें भी श्रद्दा सुमन अर्पित किया था।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों में दीक्षांत समारोह से ज़्यादा चर्चा इस बात की रही कि नोबेल शांति पुरस्कार विजेता श्री कैलाश सत्यार्थी को क्या चंद्रशेखर आजाद और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा पर पुष्पांजलि करनी चाहिए?

हिंसा के नायकों से दूरी की अपेक्षा

श्री सत्यार्थी को शांति के लिए दुनिया का सर्वोच्च सम्मान मिला है इसलिए उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे हिंसा के नायकों से दूरी बनाएं रखेंगे। आज़ाद और नेताजी, दोनों ही क्रांतिकारी हिंसा के पक्षधर थे और अंग्रेज़ों से युद्ध के ज़रिए ही भारत माता को गुलामी की ज़ंजीरों से आज़ाद कराने का सपना देखते थे।

वे बंदूक के ज़रिए क्रांति और अंग्रेज़ों का तख्तापलट चाहते थे। गाँधी भी शांति के पुजारी थे और वे आज़ाद और नेता जी जैसे क्रांतिकारियों के देश को स्वतंत्र कराने के हिंसा के रास्ते को गलत मानते थे। गाँधी से मतभेद के चलते ही नेता जी ने खुद को काँग्रेस से अलग भी कर लिया था।

दुनिया का हर नोबेल शांति पुरस्कार विजेता हिंसा के रास्ते पर चलने वालों से दूरी बनाए रखता है और ऐसे नायकों से भी। मदर टेरेसा को भी नोबेल शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया था। मदर टेरेसा कलकत्ता में ही रहती थीं लेकिन बताते हैं कि वे नेता जी के घर, जो अब स्मारक में तब्दील हो चुका है, वहां जन्म दिवस या फिर पुण्य तिथि के अवसर आदि पर कभी अपना श्रद्दा सुमन अर्पित करने नहीं गईं।

भारत में लंबे समय से रहने वाले दूसरे नोबेल शांति विजेता तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा भी कभी किसी भारतीय क्रांतिकारी के सामने नतमस्तक नहीं हुए लेकिन श्री कैलाश सत्यार्थी दुनिया के दूसरे नोबेल शांति पुरस्कार विजेताओं से जुदा हैं।

वे इस देश की मिट्टी और संस्कृति से बहुत प्यार करते हैं। आध्यात्म में उनकी जड़े बहुत गहरी हैं। देश प्रेम तो उनमें कूट-कूट कर भरा है। यही वजह है कि देश और इसके लिए बलिदान देने वाले लोग उनके लिए सर्वोपरि हैं।

नोबेल पुरस्कार के मंच से उन्होंने संस्कृत और हिंदी का मान भी बढ़ाया। नोबेल के 100 साल के इतिहास में जब एक भारतीय के रूप में उन्हें यह सम्मान मिला, तो उन्होंने अपने भाषण की शुरूआत और समाप्ति संस्कृत के वेद मंत्रों और हिंदी से की।

फोटो क्रेडिट: अरविंद कुमार/ KSCF

तमाम आलोचनाओं से बेफिक्र चंद्रशेखर को भी नमन किया

श्री सत्यार्थी पहले खांटी भारतीय हैं जिन्हें इस दुनिया का सर्वोच्च पुरस्कार मिला है। गाँधी भी इसके लिए कई बार नॉमिनेट हुए लेकिन दुर्भाग्य से उन्हें यह सम्मान नहीं मिल पाया।

इलाहाबाद के छात्रों के मन में उठने वाला सवाल स्वाभाविक था। श्री सत्यार्थी की देश-दुनिया में क्रांतिकारियों के प्रति प्रेम की वजह से आलोचना भी होती है। नोबेल पुरस्कार मिलने के कुछ समय बाद जब वे किसी कार्यक्रम में कलकत्ता गए और वहां अपने व्यस्त समय में से वक्त निकाल कर श्रदा सुमन अर्पित करने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के घर पहुंच गए तो, नेता जी के परिवार वाले भी अचंभित हो गए।

बाद में श्री सत्यार्थी के इस कदम की आलोचना भी हुई कि नोबेल शांति विजेता को आज़ाद हिंद फौज के सुप्रीम कमांडर से दूरी बनाए रखनी चाहिए थी।

ऐसे ही वे एक बार जब मध्य प्रदेश स्थित ओरछा गए तो वहां भी चंद्रशेखर आज़ाद स्मारक स्थल पहुंच कर उनकी शहादत को याद किया। जहां स्मारक बना है, वहां अंग्रेज पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या के बाद करीब साल भर चंद्रशेखर आज़ाद अंग्रेज़ों से छुपकर अज्ञातवास में रह रहे थे।

इस दौरान सत्यार्थी जी को जब यह पता चला कि आज़ाद को दूध पिलाने वाला व्यक्ति अभी जीवित है तो वे उससे मिलने उसके घर चले गए। घंटों बैठकर उससे चंद्रशेखर आजाद के व्यक्तित्व के बारे में बात करते रहे।

दुनिया के तमाम शांति प्रेमी यह तर्क देते हैं कि नोबेल शांति पुरस्कार विजेता दुनिया के लिए शांति दूत होता है। उसे शांति का समर्थक और हिंसा का विरोधी होना ही नहीं, बल्कि दिखना भी चाहिए। इसलिए हिंसा के प्रतीकों और नायकों से उसे दूरी बनानी ही चाहिए।

देश और राष्ट्र किसी पुरस्कार से कहीं ज़्यादा बड़ा होता है

सत्यार्थी जी हिंसा के विरोधी हैं। बावजूद इसके वे आज़ादी के महान क्रांतिकारी नायकों के त्याग और बलिदान को हमेशा याद रखते हैं। वे जिस भी शहर में जाते, वहां आजादी के नायकों और क्रांतिकारियों के पद चिन्हों को ढूढ़ते हैं। उन्हें याद करते हैं।

आलोचनाओं से बेपरवाह भारत का यह शांति दूत उन्हें नमन करता है। उनके चरणों में अपना श्रद्रासुमन अर्पित कर देश के करोड़ों लोगों की तरफ से देश को आज़ाद कराने के लिए कृतज्ञता व्यक्त करता है।

सत्यार्थी जी ने आलोचनाओं के बाद भी क्रांतिकारियों के बलिदान स्थलों और स्मारकों पर जाकर यह साबित कर दिया कि देश और राष्ट्र किसी पुरस्कार से कहीं ज़्यादा बड़ा होता है। चाहे वह दुनिया का सबसे बड़ा नोबेल पुरस्कार ही क्यों न हो।

कम लोगों को ही पता होगा कि श्री सत्यार्थी अपना नोबेल पुरस्कार भारत माता को यह कहते हुए “तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा” राष्ट्र को समर्पित कर दिया है। जिसे राष्ट्रपति भवन में आम जनता के लिए रखा गया है।

यह नोबेल पुरस्कार के इतिहास की पहली घटना है कि जब किसी विजेता ने अपना पुरस्कार अपने पास न रख कर राष्ट्र को समर्पित कर दिया हो। राष्ट्र के लिए त्याग करने वाले सत्यार्थी जी सही अर्थों में मां भारती के सच्चे सपूत हैं।

 

 

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