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खेलो इंडिया का नारा बिहार के बिन मैदानों के स्कूलों के साथ मज़ाक है

इसी साल 27 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खेलो इंडिया का नारा देते हुए ‘खेलो इंडिया एप’ लॉन्च किया था। इसका मकसद देश में खेल के लिए सकारात्मक माहौल तैयार करना और आने वाले समय में देश को खेल सुपरपॉवर के रूप में स्थापित करना है।

इस मौके पर खेल मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर ने कहा था,

भारत का खेल जगत में यह एक बड़ा कदम है। इस एप के ज़रिए देश भर में फिटनेस और खेलों के प्रति जागरूकता में इज़ाफा होगा।

यहां सवाल उठता है कि जब बिहार के एक तिहाई प्रारंभिक विद्यालयों के पास खेल का मैदान ही नहीं तो बच्चें खेले कहां?

विद्यालयों की खस्ता हालत

आलम यह है कि निशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा अधिनियम, 2009 की धारा 19 के तहत बिहार के विद्यालयों की हालत काफी खस्ता है। शिक्षा की वार्षिक स्थिति रिपोर्ट, 2018 (ASER) के सर्वेक्षण से पता चला है कि बिहार के 47.8% सरकारी स्कूलों के पास खेल के मैदान नहीं हैं।

बिहार के वैशाली ज़िला स्थित उत्क्रमित मध्य विद्यालय चकाकू, जो भगवानपुर प्रखंड के अंतर्गत आता हैं वहां के प्रधानाध्यापक प्रेम रंजन सिंह बताते हैं,

साल 2013 में मैं एसटीईटी के माध्यम से नियुक्त हुआ था। खास तौर से मैं सामाजिक विज्ञान का अध्यापक हूं। हमारे विद्यालय में कक्षा 1 से 8 तक की पढ़ाई होती है। पहले यह 1 से 5 तक था। फिर अपग्रेड कर 1 से 8 तक किया गया। इस वक्त कुल 250 विद्यार्थीं नामांकित हैं। जिस वक्त मैं यहां आया था तो करीब आधे बच्चे ही आते थे और वह भी मध्याह्न भोजन करने के बाद बस्ता (बैग) लेकर भाग जाते थे।

बच्चों को  स्कूल में बनाए रखने के लिए प्रधानाध्यापक प्रेम रंजन ने बहुत कोशिशें की। अपनी कोशिशों और तरकीबों को बताते हुए वह कहते हैं,

मैं बिहार लोक कला मंच से जुड़ा हूं और मैं संगीत से पीएचडी भी कर रहा हूं इसलिए मैनें इसकी एक तरकीब निकाली जिससे बच्चें विद्यालय में रूक सकें। मैं अपना हार्मोनियम लाकर बच्चों को क्षेत्रीय लोकगीत, संस्कार गीत और सोहर आदि शाम 3 बजे से 3:30 तक सिखाने लगा। इसका बेहद सकारात्मक परिणाम मुझे मिला। बच्चों की उपस्थिति 50 फीसदी से बढ़कर 70 फीसदी हो गई है।

प्रधानाध्यापक प्रेम रंजन इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं,

आज मैं बेहद खुशी महसूस करता हूं। स्कूल में अभी 250 विद्यार्थी नामांकित हैं पर शिक्षक 6 हैं। विज्ञान की बात पूरी दुनिया में हो रही है। चंद्रयान-2 पर लगभग हज़ार करोड़ रूपए खर्च कर हम चांद पर पहुंच सकते हैं लेकिन हमारे विद्यालय में विज्ञान के शिक्षक नहीं जो कक्षा 6 से 8 तक के बच्चों को पढ़ा सके। हमारा चांद अंधकार में है। यहीं से सही मायने में विज्ञान विषय के जड़ की शुरूआत हो जाती है। किसी तरह से हमलोग मैनेज करते हैं।

खेल के मैदान के बारे पूछने पर कहते हैं,

विद्यालय का मकान दो भागों में बना हुआ है, एक सड़क के इस तरफ और दूसरा सड़क के उस तरफ। मुश्किल से 50 गज ज़मीन है जिसमें बच्चें थोड़ा बहुत खड़ा भी हो पाते हैं। दिक्कत तो यह है कि इसके बीच से चकाकू गांव में जाने का एक मात्र पक्का रास्ता भी है और चारदीवारी की बात तो छोड़ ही दीजिए।

उनका कहना है,

 हर विद्यालय के पास खेल का मैदान होना चाहिए ताकि बच्चों का पूर्ण रूप से शारीरिक व मानसिक विकास हो सके, लेकिन सरकार तो सत्ता के लिए जीती और मरती है।

संगीत बच्चों के लिए कितना आवश्यक है? यह पूछने पर वह बताते हैं,

सरकार की डिक्शनरी में संगीत का कोई महत्व नहीं है, जबकि मेरा मानना है कि संगीत सबसे शीतल होता है और इससे हर बच्चों के भीतर एक नई ऊर्जा उत्पन्न होती है।

उनकी इस कोशिश पर कई लोगों ने तंज भी कसे। उस अनुभव को साझा करते हुए वह कहते हैं,

जिस वक्त मैनें उपस्थिति बढ़ाने के लिए संगीत का प्रयोग शुरू किया तो गाँव के लोग मज़ाक उड़ाना शुरू कर दिए। कहते थे कि यह क्या पढ़ाएगा? यह तो नचनिया है लेकिन आज देखिए क्या माहौल है। संगीत की एक अलग कक्षा तो होनी ही चाहिए जिससे बच्चों के भीतर एक नई चेतना के साथ-साथ अपना क्षेत्रीय लोकगीत, संस्कार गीत में दिलचस्पी बढ़ेगी।

आगे कहते हैं,

मुझे बच्चों को पढ़ाना भी होता है और सरकारी कागज़ात आदि भी बनाने होते हैं, जिसमें मेरी 40% ऊर्जा कागज़ात तैयार करने में ही लग जाती है। इसकी वजह से मैं ना बच्चों को स्कूल में पढ़ाने में  100% समय दे पाता हूं और ना ही अपना दिमाग।

पैमाना सिर्फ कागज़ पर, ज़मीनी हकीकत कुछ और ही है

बुनियादी भौतिक सुविधाओं के आधार पर निशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा अधिनियम, 2009 की धारा 19 के अंतर्गत विद्यालयों के कुल दस पैमाने निहित किए गए हैं।

इन पैमानों में विद्यालयों के लिए भवन, कार्यालय-स्टोर-प्रधानाध्यापक कक्ष, शिक्षकों के लिए वर्ग कक्ष, दिव्यांग विद्यार्थियों के लिए रेम्प, छात्र व छात्राओं के लिए पृथक शौचालय, पीने के पानी की सुविधा, बच्चों के मध्याह्न भोजन बनाने हेतु रसोई कक्ष, विद्यालय व विद्यार्थियों की सुरक्षा हेतु चहारदीवारी और खेलने के लिए खेल का मैदान आदि निर्दिष्ट किए गए हैं।

सच्चाई यह है कि यह सारी सुविधाएं सूबे के सिर्फ कुछ ही विद्यालयों में ही है। बिहार में सिर्फ 2% विद्यालय हैं जहां कंप्यूटर की सुविधा है। सिर्फ यही नहीं 10% से ज़्यादा प्राथमिक विद्यालय ऐसे हैं जिनके पास बिल्डिंग ही नहीं है।

इसी साल बिहार सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान के लिए 14,352 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं। 2019-20 में शिक्षा का कुल बजट  94,853.64 करोड़ रुपये रखा गया है, फिर भी सूबे की शिक्षा की हालत चिंताजनक है।

बिहार शिक्षा विभाग के आंकड़ों के मुताबिक 4.40 लाख शिक्षक कार्यरत हैं। इस तरह से औसतन देखें तो हर विद्यालय पर 6 शिक्षकों का गणित बैठता है लेकिन सूबे में लगभग 6% विद्यालय है जो एक शिक्षक के सहारे संचालित होते हैं। इससे इतर 17 फीसदी ऐसे विद्यालय है जहां एक भी महिला शिक्षक नहीं हैं।

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