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“क्यों डोनाल्ड ट्रंप का पीएम मोदी को ‘फादर ऑफ नेशन’ कहना तर्कहीन है”

नरेन्द्र मोदी और डोनाल्ड ट्रंप

नरेन्द्र मोदी और डोनाल्ड ट्रंप

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भारत का राष्ट्रपिता कहा है, जिसके बाद इस बात को लेकर हंगामा खड़ा हो गया है। मेरा यह मानना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कोई भी उपाधि दी जा सकती है मगर राष्ट्रपिता की बिल्कुल नहीं। ट्रंप की यह बात पूरी तरह से तर्कहीन है। इस उपाधि का हकदार मैं सिर्फ गाँधी जी को ही मानता हूं।

गाँधी से बड़ा राष्ट्रपिता कोई नहीं

गाँधी जी ने अपना सारा जीवन ही सामाजिक कल्याण के लिए लगा दिया। शायद इसलिए मैं उन्हें एक समाज सुधारक के रूप में ज़्यादा देखता हूं। उस ज़माने में हर एक राजनीतिक दल अपने लक्ष्य बनाकर काम कर रहे थे। कोई भारत की आज़ादी के लिए काम कर रहा था, कोई अपने लोगों को राजनीतिक ताकत दिलाने के लिए और कोई अपने धर्म की वकालत करने में लगा था। उस वक्त गाँधी जी ने बिना किसी स्वार्थ के वे काम किए, जो देशहित के लिए ज़रूरी थे।

आज़ादी की लड़ाई में गाँधी जी वह पहले शख्स थे, जिन्होंने काँग्रेसियों को यह एहसास दिलाया कि भारत का मतलब है 7 लाख देहात, ना कि कुछ शहर। अगर हमें आज़ादी चाहिए, तो हमें अपने किसान भाइयों के साथ चलना होगा। गाँधी जी द्वारा किए गए चम्पारण सत्याग्रह (1917) और नमक सत्याग्रह (1931) अहम थे।

वहीं, सरदार वल्लभ भाई पटेल, जिन्हें खुद गाँधी जी आज़ादी की लड़ाई में लाए थे, उनका खेड़ा सत्याग्रह (1918) और बारदोली सत्याग्रह (1928) भी बापू के उद्देश्यों को दर्शाता है।

वह गाँधी जी और उनका चम्पारण सत्याग्रह ही था, जिसने ना सिर्फ किसानों को अंग्रेज़ों की लूट से बचाया, बल्कि डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, डॉ. अनुग्रह नारायण सिन्हा और एडवोकेट मज़रूल हक जैसे महान क्रांतिकारी भी दिए।

स्वदेशी अभियान

स्वदेशी एक ऐसा अभियान था, जो लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले जी के ज़माने से चल रहा था, जिसके तहत उन्होंने कई स्कूल, कॉलेज और सहकारी समितियां बनाई थी। गाँधी जी ने उस पर भी काम किया। खादी उसका सबसे बड़ा उदाहरण है। जब 1931 में भारतीयों ने अपना खुद का नमक बनाया, तब यह काम और भी मज़बूत हुआ।

पूना समझौता

1932 में जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री रामसाय मैकडोनाल्ड ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अलग चुनाव क्षेत्र की मांग का समर्थन किया, तब हिंदुओं में विभाजन का डर पैदा हुआ। गांधी जी आमरण अनशन पर बैठ गए, जिसके बाद पंडित मालवीय और डॉ. अम्बेडकर ने पूना समझौता किया।

इसमें अंग्रेज़ों द्वारा दी गई 88 सीटों से ज़्यादा 148 सीटें दी गई। मद्रास विधानसभा में 30, बॉम्बे में 5, पंजाब में 8, बिहार में 18, मध्य भारत में 20, असम में 7, बंगाल में 30 और उत्तर प्रदेश में 20 सीटें देने पर सहमति हुई। साथ ही दलितों के लिए कई मंदिरों के दरवाज़े खुले। यह सब गाँधी जी के प्रयासों का नतीजा था।

आज़ादी के बाद दंगे रोकने के लिए गाँधी जी का अनशन

अंत में मुझे एक और किस्सा याद आता है। 1947 के बंटवारे की कहानी, जहां एक ओर भारत आज़ाद हुआ, वहीं दूसरी तरफ विभाजित भी हुआ। मोहम्मद अली जिन्ना सत्ता हस्तांतरण होने से एक दिन पहले ही पाकिस्तान के गवर्नर बन गए और हमारे नेता इस मुसीबत में फंसे थे कि देश में दंगे कैसे रोके जाएं।

तब महात्मा गाँधी कभी नोआखाली में तो कभी दिल्ली की पंजाबियों की शरणार्थी बस्तियों में इस उम्मीद से रह रहे थे कि वह इन बर्बाद लोगों के ज़ख्मों पर मरहम लगा सकें। जब वह निराश हुए तो इस खून-खराबे को रोकने के लिए आखिरी बार आमरण अनशन पर गए। यह अनशन 6 दिनों तक चला। इस अनशन की वजह से भारत में दंगे बहुत जगह रुक गए। 

इस महात्मा की ज़िंदगी के साथ उसकी मृत्यु भी देश के लिए यादगार रही। उनकी हत्या के बाद देश का हर नागरिक एकजुट हो गया। इतिहास में मुझे एक ऐसा नेता बता दीजिए जिसने अपने देश के लिए इतना काम किया हो। यह दुखद है कि आज उन पर उंगलियां उठाई जा रही हैं।

गाँधी को बंटवारे का ज़िम्मेदार ठहराना गलत

क्या गाँधी ने देश का बंटवारा करवाया? इसका सीधा जवाब है ‘नहीं’। मैं यहां दो किताबों का ज़िक्र करना चाहूंगा। पहली, आचार्य कृपलानी की किताब। 2004 में रूपा प्रकाशन द्वारा उनकी मृत्यु के 22 साल बाद उनकी आत्मकथा ‘माई टाइम्स’ जारी की गई थी। पुस्तक में उन्होंने राम मनोहर लोहिया, महात्मा गाँधी और खान अब्दुल गफ्फार खान को छोड़कर काँग्रेस के अपने बाकी साथियों को दोषी माना था, जिससे पाकिस्तान बना। 

यह भी एक सच है कि गाँधी जी ने जिन्ना को भारत का प्रधानमंत्री बनने की पेशकश की थी, जिसे काँग्रेस ने नकार दिया था। यह बात नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे ने अपनी किताब ‘मैंने गाँधी को क्यों मारा’ में मानी थी। तो गाँधी कहां से भारत के बंटवारे के लिए ज़िम्मेदार हुए?

गाँधी अकेले नहीं हैं, जो अपने देशवासियों के हाथों मारे गए। डॉ. मार्टिन लूथर किंग और इज़राइल के पूर्व प्रधानमंत्री यतज़ाक़ राबिन भी इसी सूची में आते हैं। अंत में मैं यही कहूंगा कि राष्ट्रपिता एक ही हैं और वह हैं महात्मा गाँधी।

नोट: इस लेख के कुछ तथ्य आचार्य कृपलानी की ऑटोबायोग्राफी ‘My Times’ से लिए गए हैं।

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