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क्या अखबार आम आदमी से दगाबाज़ी कर रहे हैं?

17 सितम्बर को ‘राजस्थान पत्रिका’ में एक राष्ट्रीय पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और देश के वर्तमान गृहमंत्री का आर्टिकल प्रकाशित हुआ है, जो देश पर या देश की समस्याओं पर नहीं था बल्कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘बर्थडे कॉम्प्लिमेंट’ था।

इस लेख में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल की उपलब्धियों की चर्चा करते हुए उन्हें जन्मदिन की बधाई दी लेकिन दूर-दूर तक देश में फैली आर्थिक मंदी या अन्य समस्याओं को ज़िक्र तक नहीं किया।

लोग अखबार पढ़ते क्यों हैं?

अच्छा है, अखबार मंदी पर खबर ना छापकर प्रधानमंत्री को ‘बर्थडे विश’ कर रहे हैं। कितनी सकारात्मक बातें कहते हैं अखबार। अब प्रधानमंत्री से बड़ा फकीर आदमी कौन है, कभी भी झोला उठाकर चल देंगे और जब तक झोला है उन्हें ‘बर्थडे विश’ करना ही होगा।

हालांकि ‘राजस्थान पत्रिका’ देश के जाने-माने अखबारों में से एक है। प्रत्यक्ष रूप से कहूं तो राजस्थान पत्रिका को किसी बखान की आवश्यकता नहीं है क्योंकि राजस्थान पत्रिका भारत के लगभग हर घरों में जाता है और चाय की चुस्कियों के साथ पढ़ा जाता है। अब सवाल यह उठता है कि लोग अखबार पढ़ते क्यों हैं?

तो जवाब मिलता है कि लोग इसलिए अखबार पढ़ते हैं क्योंकि अखबार में सूचना होती है, वह सूचना जो देश और देशवासियों के बीच का पुल है और वह सूचना जो लोगों को ‘वेल इम्फॉर्मड’ करती है।

वर्तमान पत्रकारिता के रूप

मतलब सीधा कहूं तो लोग देश-दुनिया को अखबार रूपी आंखों से देखते हैं लेकिन वही अखबार जब उन्हें सिक्के का सिर्फ एक पहलू दिखाने लग जाए तो चिंता की बात है।

चिंता इसीलिए क्योंकि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है(लोगों के अनुसार)। तो यहां पत्रकारिता निष्पक्षता के साथ होनी चाहिए लेकिन भारत की वर्तमान पत्रकारिता से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है।

तो हम प्रत्यक्ष रूप से सवाल उठा सकते हैं कि भारत लोकतांत्रिक देश कैसे हुआ? क्योंकि जहां तक मेरी समझ है, ‘लोकतंत्र सिर्फ मताधिकार से नहीं चलता।’

लोकतंत्र चलता है आज़ादी और विचारों से, जो आज ना तो लोगों के पास है और ना ही पत्रकारों के पास। तो ज़ाहिर सी बात है कि अखबारों से उम्मीद लगाना बेकार है क्योंकि खबरों के साथ-साथ उम्मीदों की भी हत्या हो रही है।

आम आदमी के लिए प्रोपोगेंडा

एक आम आदमी अपनी सीमित आय से सूचना के लिए अखबार खरीदता है लेकिन वह इस बात से अनभिज्ञ है कि किसी विशेष ‘प्रोपेगेंडा’ के तहत उसे ‘पोलराइज’ किया जा रहा है।

प्रौद्योगिकी के कारण लोग कहते हैं कि इंसानों की जगह धीरे-धीरे रोबोट लेते जा रहे हैं लेकिन वो यह नहीं जानते कि भारत में मीडिया इंसानों को ही रोबोट के रूप में स्थापित कर रहा है जो कि विशेष सोच या दल के द्वारा संचालित है। सोच और दल का प्रोपेगेंडा अखबारों से अप्रत्यक्ष रूप से फैलाया जा रहा है और आम आदमी को इसमें फंसाया जा रहा है।

भारत के अधिकांश अखबार, जिनकी पहुंच आम आदमी तक है वे सिर्फ खास आदमियों की खबर दिखाते हैं लेकिन अखबार के पैसे लेते हैं उस घिसे-पीटे आम आदमी से, जो बच्चों के लिए खिलौना लेने से पहले भी दस बार सोचता है।

यह बात अलग है कि वह अखबार के पैसे देते वक्त एक बार भी नहीं सोचता क्योंकि उसे लगता है कि अखबार उसे खबर और सूचना प्रदान कर रहा है लेकिन यह वहम बना रहे तो अच्छा है।

अच्छा इसलिए है क्योंकि जिस दिन आम आदमी का अखबारों और न्यूज़ चैनलों से विश्वास उठ जाएगा उस दिन लोकतंत्र से विश्वास उठ जाएगा और अप्रत्यक्ष रूप से देश की व्यवस्था से।

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