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“बकरीद पर जीव हत्या के खिलाफ लिखने पर लोगों ने मुझे कट्टर हिन्दू कहा”

अनुपमा सिंह

अनुपमा सिंह

कुछ दिनों पहले मैंने जब बकरीद पर यह लिखा था कि किसी जीव की हत्या करके जश्न मनाना हमें कहीं से भी उत्सव या त्यौहार नहीं लगता है, तब लोगों को तकलीफ होने लगी। सेक्युलर लोग हमको जज करके कट्टर हिन्दू का सर्टिफिकेट बांटने लगे। जबकि मेरा विरोध धर्म के नाम पर जीव हत्या को लेकर था, जिसमें बलि और कुर्बानी दोनों का विरोध शामिल था।

फिर कल एक पोस्ट के ज़रिये मैंने लिखा कि एक दंत या दांत टूटने के बाद गणपति हमें स्वीकार हैं लेकिन मनुष्य का किसी दुर्घटना में दांत टूट जाए या कोई अंग भंग हो जाए, तो उन्हें समाज हास्यप्रद तरीके से लेता है। इतनी सी बात थी जिसे कुछ लोगों ने डायलॉग डिसकसन के रूप में ना लेकर इतना सीरियस ले लिया कि वे खुलेआम मेरे पोस्ट पर हमें जेहादी का तमगा देने लगे और मार देने का धमकी तक दे दिए।

हमें ऐसे  युवाओं की भीड़ को देखकर रोना आता है और ऐसा लगता है कि भारत युवाओं का देश है लेकिन कैसे युवाओं को हम तैयार कर रहे हैं? जो सवाल-जवाब या मंथन को प्राथमिकता ना देकर राष्ट्रवादी और धर्मिक होने को लेकर जजमेंट करने लगते हैं और जब बात उनके मन की ना हो, तो खुलेआम धमकी देने लगते हैं।

धमकी देने का काम सिर्फ आम लोग ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि कुछ दिनों पहले उत्तर प्रदेश के प्रधान सचिव की पत्नी और प्रसिद्ध लोक गायिका मालिनी अवस्थी का भी ट्वीट कुछ इसी फूहड़ और अल्हड़ अंदाज़ में किया गया था, जो खुले आम मॉब लिंचिंग को बढ़ावा दे रही हैं।

फोटो साभार- Twitter

अब ज़रा समझिए क्यों उत्तर प्रदेश की यह हालत है। इनपर तो कायदे से आतंकवाद का मुकदमा चलना चाहिए था। मालिनी अवस्थी अपनी कला को लेकर मेरी प्रिय रही हैं लेकिन उनका राम मंदिर को लेकर ट्वीट काफी उन्मादी साउंड करता है। प्रसिद्धि प्राप्त किए लोग जब गैर-ज़िम्मेदार हरकत करते हैं, तो उन्हें कभी माफ नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि वे युवाओं के लिए प्रेरणा हैं और इनकी एक गलत हरकत कई युवाओं को पथ भ्रष्ट बना सकता है।

त्यौहारों के मायने बदल रहे हैं

कल मोहर्रम था और बचपन में तो हम नासमझी में मुस्लिम दोस्तों को हैप्पी मुहर्रम कह देते थे और वे भी खुशी से सेम टू यू दोस्त बोल देती थी लेकिन आगे चलकर समझ आई कि मुहर्रम के अवसर पर कर्बला के शहीदों एवं हज़रत इमाम हुसैन की कुर्बानियों को याद किया जाना चाहिए और साथ में ही समस्त मुस्लिम भाईयों-बहनों को इस्लामिक नए साल की मुबारकबाद देनी चाहिए।

मुहर्रम मैदान-ए-कर्बला में अन्याय, ज़ुल्म और अहंकार के खिलाफ हक और सच्चाई के लिए हज़रत इमाम हुसैन एवं उनके साथियों द्वारा दी गई कुर्बानियों को याद दिलाता है लेकिन आज सभी त्यौहार और संस्कृति अपनी मूल पहचान खोता जा रहा है।

धर्म पर राष्ट्रवाद और धार्मिक उन्माद का रंग चढ़ता जा रहा है। मुगल साम्राज्य में शासक अपनी ताकत और सैन्य प्रदर्शन के लिए मुहर्रम के समय मार्च निकाला करते थे, जो सम्भवतः आज के गणतंत्र दिवस जैसा रहा करता होगा लेकिन अब के समय में नंगी तलवार, जंज़ीर और डंडों को लहराते हुए अपने शरीर को खून से लथपथ किए युवाओं से पटा हुआ जो काफिला मुहर्रम के दौरान सड़कों पर निकलता है, उसको देखकर दिमाग में सिर्फ खौफ आता है।

बीएचयू में ताजिया को लेकर विरोध

कल बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में भी ताजिया निकालने को लेकर काफी विरोध जताया जा रहा था लेकिन इसके बावजूद वहां मुहर्रम के मौके पर ताजिया निकाला गया। बीएचयू के लिए ये दो-चार साल से होने वाली बात रही है इसलिए कुछ लोग विरोध कर रहे हैं लेकिन पटना में कई बड़े सरकारी अस्पताल और यूनिवर्सिटी की सरकारी ज़मीन पर अवैध रूप से मंदिर, दरगाह और मस्जिद बनाए गए हैं।

समय समय पर ताजिया के साथ मूर्ति बैठाकर पूजा भी होती रही है। ऐसे में कभी प्रशासन ने रोक नहीं लगाई जबकि किसी भी एजुकेशनल कैंपस और हॉस्पिटल में कान फोड़ू म्यूज़िक वर्जित होती है लेकिन धर्म का मर्म सारे नियम कानून को ताख पर रखकर अपने मन की करने की आज़ादी दे जाता है।

हमारा समाज बहुत तेज़ी से ऐसे कालचक्र में शामिल हो गया है, जहां पढ़ने-लिखने से लेकर सोचने-समझने तक को त्याग कर खुद को सर्वोत्तम सिद्ध करना और सामने वाले को नीचा दिखाने का मकसद मात्र रह गया है।

अभी बहुत ज़रूरी है कि हम संयमित होकर ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ें, सलेक्टिव ना होकर अपनी राय बनाएं लेकिन अपनी विचारधारा थोपे नहीं।दूसरों को समझ सके तो ठीक है और ना समझ पाएं, तो उन्हें मारने या धमकाने जैसी मर्यादाहीन व्यवहार करके अपने अंदर के इंसानियत को खोना कहीं से भी आपको ना तो राष्ट्रवादी बनाता है और ना ही धार्मिक।

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