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कविता: “चांद-चांद कहकर बहने वाले आंसू नहीं गिरते हैं ज़मीन पर”

आंसूओं से असमानता टपकती है,
चांद-चांद कहकर बहने वाले आंसू
नहीं गिरते हैं ज़मीन पर,
वे घुस जाते हैं दूसरों के घर में।

देश के सबसे ताकतवर कंधे
होने चाहिए घर
भात-भात कहकर मरने वाली संतोषी की मॉं के आंसूओं के।

उन कंधों को छान लेना चाहिए
झेलम के पानी से आंसूओं को,
कर देना चाहिए बहाल

उसके कलकल बहते पानी के मधुर संगीत को,
जिसकी धुन पर थिरकने के लिए
झेलम के हर मिलन पर
चेनाब के पैरों के इंतज़ार की इंतहा होती जा रही है।

एक दिन ये आंसू ज़मीन पर नहीं गिरेंगे,
हवाओं पर बैठकर
तय कर लेंगे सफर उन कंधों तक का,
अधिकृत कर लेंगे उनपर अपने हक की ज़मीन,
झुका देंगे उनकी अकड़ को अपने भार से।

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