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“सत्ता विचारों को दबा सकती है लेकिन मार नहीं सकती”

पूरे देश में संवैधानिक हक अधिकार, मान-सम्मान और सामाजिक न्याय की आवाज़ को बुलंद करने वाले लाखों-करोड़ों छात्र-छात्राओं, प्रोफेसरों, सामाजिक कार्यकर्ता व न्याय पसंद लोग आवाज़ उठाते रहें हैं। इस तरह से इन लोगों ने वैचारिक संवाद के माध्यम से “प्रतिरोध की संस्कृति” का सिलसिला आगे बढ़ाया है।

क्यों हो रहा है प्रतिरोध

भले ही आज इस तरह के वैचारिक संवाद हो रहें हैं लेकिन जिस तरह से बदले हुए दौर में बदले की राजनीति शुरू हो गई है वह भी शोध का विषय हो सकता है। यह जानना ज़रूरी हो गया है कि ऐसे कौन से लोग हैं जो ऐसा कर रहे हैं?

जहां तक प्रतिरोध की बात है, तो साहब कोई नहीं करना चाहता है प्रतिरोध। बशर्ते,

इसके लिए थोड़ा सा साहब आप भी प्रयास करते तो प्रतिरोध करने की ज़रूरत ही ना पड़ती।

कहां जाता है पैसा?

अभी हाल में देखे तो पूरे देश में 1 सितंबर 2019 से चालान काटा जा रहा है। हर तरफ इसकी चर्चा भी हो रही है। खासकर, सड़कों का मुद्दा फिर गरमाया है। इतना रुपया जाता कहां है?

हम सभी चाहते हैं कि नियम-कानून बने और उसका पालन भी होना चाहिए लेकिन पिछले कुछ वर्षों में बैंकों से करोड़ों रुपये लेकर फरार हुए लोगों का अभी तक भारत सरकार ने कितना प्रयास किया? इसका हिसाब-किताब भी जनता को बताना चाहिए।

मानसिक गुलाम बनाने की हर तरफ से कोशिश जारी है। साहब ये 21वीं सदी विचारों की है। ज़्यादा दिन यह सब नहीं चलेगा।

विचारों को कुछ समय के लिए सत्ता के बल पर आप दबा तो सकते हैं पर मार नहीं सकते।

 

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