जब कोई लड़की अपने अधिकारों की बात करती है, स्वतंत्रता के मायने समझती है, जब वो तुम्हारी इन ढकोसले वाली परम्पराओं को दुत्कारती है, जब वो तुम्हारे पितृसत्तात्मक पिंजरे को तोड़ती है, तुम्हें क्यों डर लगता है भला? क्यों कानून की छड़ी ढूंढने लगते हो?
इंट्रो के पीछे संदर्भ यह है कि राजस्थान मानवाधिकार आयोग के प्रमुख जस्टिस प्रकाश टांटिया और सदस्य जस्टिस (रि) महेश चंद्र शर्मा का कहना है,
लिव-इन रिलेशनशिप पर रोक लगनी चाहिए। ऐसे रिलेशनशिप में रहने वाली महिलाएं ‘रखैल के समान’ हैं।
आयोग ने सरकार से कहा है कि लिव-इन रिलेशनशिप पर रोक लगाने के लिए कानून लाया जाए, क्योंकि यह समाज को विखंडित कर रहा है। आगे किसी भी बात पर दिमाग लगाने से पहले यह ध्यान रहे कि जस्टिस (रि.) शर्मा वो ही हैं, जिन्होंने कहा था कि मोर सेक्स नहीं करता है, वह ब्रह्मचारी रहता है, इसलिए राष्ट्रीय पक्षी है।
सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन को माना एकदम उचित
सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन को लेकर गाइडलाइंस जारी की है, जिसमें कहा गया है कि जो रिश्ता पर्याप्त समय से हो और टिकाऊ माना जाए (ये कोर्ट तय करेगा), दोनों की अपनी इच्छा हो और दोनों पार्टनर लंबे समय से अपने आर्थिक व अन्य प्रकार के संसाधन आपस में बांट रहे हो, तो वह रिश्ता लिव-इन ही कहलाएगा।
इसके अलावा लिव-इन में रहने वाली महिलाओं के पास वे सारे कानूनी अधिकार हैं, जो भारतीय पत्नी को संवैधानिक तौर पर दिए गए हैं। वहीं अगर लिव-इन में रहने वाली महिला अगर अलग होती है, तो उसे एक शादीशुदा महिला की तरह सारी कानूनी सुरक्षा मिलेंगे।
- घरेलू हिंसा से संरक्षण प्राप्त
- प्रॉपर्टी पर अधिकार
- बच्चे को विरासत का अधिकार
ऐसे में जस्टिस शर्मा जैसे लोगों द्वारा इसकी खिलाफत करना उनकी पितृसत्तात्मक सोच ज़ाहिर करता है। जब सामाजिक बंधनों में जकड़ी एक महिला स्वतंत्र होकर सोचती है, अपना भला-बुरा समझने लग जाती है, अपने फैसले लेने में सक्षम हो जाती है, तो हमेशा कुछ “ठेकेदार” आ खड़े होते हैं और समाजिक सुरक्षा का पाठ पढ़ाते हैं, अधिकारों की खोखली बात करते हैं।
शादी एक पवित्र बंधन है, इसमें कहां कोई दो राय है, यही तो कहते आ रहे हो ना सदियों से, ठीक है। इसके साथ घरेलू हिंसा में नए रिकॉर्ड भी कायम किये जा रहे हो। यहां लिव-इन को लेकर दिए गए तर्कों से शादी के कॉन्सेप्ट को नकारने का मकसद मेरा बिल्कुल नहीं है।
सवाल समाज के बुनियादी ढांचे में बंधी उस महिला का है, जिसकी झूठी लड़ाई तुम्हारी पुरुषवादी सोच लड़ने का दावा करती है। अगर बराबरी के असल मायनों में पैरोकार हो तुम तो फैसले की, स्वतंत्र सोच की कद्र करना भी उतना ही ज़रूरी है, जज साहब।