नवरात्रि सिर्फ हर्ष और उल्लास का त्यौहार नहीं है। यह साल में 2 बार आने वाला एक ऐसा पर्व है जिसमें, दैत्य दर्प विनाशिनी माँ दुर्गा के नौ स्वरूपों का पूजन किया जाता है।
ऐसी मान्यता है कि वर्ष भर के कई अश्रेयस्कर तथा अपवित्र कार्यों से गुजरने वाला व्यक्ति भी अगर नवरात्र के इन नौ दिनों में भक्ति पूर्वक माँ दुर्गा की पूजा एवं साधना करता है, तो उसे रूप, विजय तथा यश की प्राप्ति होती है। नौ दिन तक लोग अपने घरों में पूजा- पाठ करते हैं तथा अंतिम दिन कन्या पूजन कर, माँ दुर्गा का विसर्जन करते हैं लेकिन वर्तमान में यह स्वरूप बदल गया है।
बदल गया है नवरात्रि का स्वरूप
अब दुर्गा पूजा का आयोजन साधना या देवी की आराधना हेतु नहीं बल्कि बड़े-बड़े भव्य पंडालों के दर्शन, मेला तथा वहां लगाए जा रहे पंडालों हेतु किया जाता है।
अब नौ दिनों का उपवास केवल नाम मात्र का होता है। यह उपवास केवल एक दिखावा है जबकि मानसिक शुद्धता का इसमें कोई स्थान ही नहीं बचा है। ब्रह्मचर्य के पालन हेतु किया जाने वाला यह उपवास अब किसी ब्रह्मचर्य को नहीं मानता है।
नौ दिनों तक की पूजा के बाद कन्याओं को देवी का दर्ज़ा देकर पूजने वाला यही समाज अब उन्हीं कन्याओं में अपनी वासना का दर्शन करता है। जिसका परिणाम और प्रमाण हर दिन के अखबार हैं। वही अखबार जो अगले दिन रद्दी के टोकरी या कूड़ेदान में स्वच्छ भारत अभियान में अपनी भूमिका निभाते हैं।
सही है, कागज के टुकड़ों को कूड़ेदान में डाल कर हम स्वच्छ भारत का परचम लहरा रहे हैं लेकिन कभी भी अपनी गंदी मानसिकता को किसी कूड़ेदान में नहीं डाल पाते।
चंदा मांगने वालों का रौब
खैर, चर्चा करते हैं आधुनिक श्रद्धा विहीन, आस्था रहित और मनोरंजन सहित नवरात्रि की। शुरुआत होती है गांवों में घूम-घूम, सड़कों पर खड़े होकर बड़े ही रौब में चंदा मांगने वालों की।
पूजा समिति के साथ चलने वाले ज़्यादातर युवा स्वयं को एक विधायक मान रहे होते हैं क्योंकि उनपर पूजा और भक्ति का नशा कम लेकिन इसी चंदे के पैसे से पी जाने वाली मदिरा का नशा अधिक होता है।
इस चंदे को एकीकृत कर सबसे पहले यह सूचना जारी की जाती है कि किस लोकप्रिय गायक, गायिका, नर्तकी, अभिनेता या अभिनेत्री का आगमन होने वाला है।
यह इसलिए क्योंकि जितनी बड़ी लोकप्रियता दिखाई जाएगी, उतनी ही मात्रा में भीड़ आएगी। उसी के अनुसार स्टॉल का व्यापार चलेगा। फिर उसी के अनुसार पूजा समिति की कमाई भी होगी।
आम जनता भी पीछे नहीं
आम जनता भी इस मामले में पीछे नहीं है। केवल पूजा और आराधना वाले स्थानों पर तो वे अपने परिवार के साथ इसलिए नहीं जाते कि सुनसान स्थान है, हो सकता है कोई अप्रिय घटना घट जाए। बच्चों को भी बड़े झूले ही पसंद हैं और फिर बड़े बड़े डीजे साउंड ना बजे, कुछ नाच-गाना ना हो, आधुनिक मूर्तियां ना रहें तथा गाड़ी खड़ी करने के लिए पार्किंग का स्थान ना हो तो यह कैसी पूजा?
ब्रह्मचर्य और साधना क्या है यह अब पुस्तकों में प्राप्त होती है। पूजा और आध्यात्म से कोसों दूर समाज में एक ऐसा तबका भी है जो इन पर्वों में किसी धर्म को निभाने नहीं बल्कि अपनी लड़कियों को बुरी नज़र से देखने जाते हैं। यह सब बातें हमारी संस्कृति, पूजा, पाठ एवं हमारी रीतियों पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करती है।
आज हिंदुत्व इसलिए पीछे नहीं हो रहा है कि हमारी धर्म पद्धति जटिल है, अपितु इसके पीछे होने का कारण है कि गणपति हो, सरस्वती हो, विश्वकर्मा हो या दुर्गा, बिना मद्य पान किए तथा अश्लील गानों पर ठुमके लगाए बिना इनका विसर्जन नहीं हो रहा है।
सोचने वाली बात यह है कि क्या इन्हीं मनोरंजन हेतु हमारे शास्त्रों और विधानों ने इन पर्वों को हमारे जीवन में स्थान दिया था? क्या हम मात्र नौ दिन भी अपनी संस्कृति, पूजा-पाठ, पद्धति, संस्कार, वेद, ज्ञान और उन्नति के साथ आगे नहीं बढ़ सकते हैं?
क्या साधना के समय में ये पंडाल और नाच गाने आवश्यक हैं? तपस्या साधना और योग तो एकांत का विषय है लेकिन यहां तो ऐसा कुछ दिखता ही नहीं है? पूजा बड़े पंडालों, झूलों और स्टॉलों के बीच भीड़ में संभव है या एकांत प्रकृति की गोद में?
आपने अपना समय देकर जब इतना पढ़ ही लिया तो एक प्रश्न स्वयं से कीजिएगा। कहीं हम मद्यपान और सारी कुरीतियों के साथ, अश्लील गानों पर ठुमके लगाते हुए मूर्ति विसर्जन के साथ अपनी संस्कृति का तो विसर्जन नहीं कर रहे हैं?
तो चलें एक कदम अपनी संस्कृति के पुनर्जागरण हेतु, पुनरुत्थान हेतु, इसकी उन्नति हेतु एक बदलाव के साथ। संकल्प लें इस नवरात्रि पूजन की, हवन की, ना की मनोरंजन की।