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“स्लम के बच्चों को पढ़ाने के लिए हमें शिक्षक ही नहीं उनका दोस्त भी बनना पड़ा”

हमारे देश के बड़े शहरों में अमूमन एक शब्द का इस्तेमाल होता है, स्लम यानी झुग्गी झोपड़ियां की बस्ती। आलीशान चमचमाती इमारतों के बीच अपनी जगह बनाए हुए, छोटे-छोटे गाँव और कस्बों से लोग बड़े शहरों में रोज़गार की तलाश में आते हैं लेकिन यहां की भागमभाग वाली ज़िन्दगी के फेर में फंसकर दिहाड़ी मज़दूर बनकर रह जाते हैं। अपनी दिनभर की कमाई से अपने परिवार का पालन पोषण करते हैं। इन छोटी-छोटी बस्तियों में अपने परिवार सहित जीवन गुज़ारते हैं।

इन झुग्गियों में रहने वाले लोग भले ही दिहाड़ी मज़दूरी करते हो लेकिन अपने बच्चों को ये ज़िन्दगी नहीं देना चाहते हैं। इन बच्चों में एक अच्छा जीवन जीने की आशा है। वे रोज़ रात एक बेहतर ज़िन्दगी का सपना लेकर सोते हैं और सुबह एक नई उम्मीद के साथ उठते हैं। इनके इस सपने को पूरा करने में मदद कर रही है रॉबिन हुड आर्मी।

स्लम के बच्चों के साथ रॉबिन हुड आर्मी

आसान नहीं था बच्चों को पढ़ाने के लिए उनके माता-पिता का भरोसा जीतना

दिल्ली के मजनू के टीला के पास एक बस्ती में पिछले 2 सालों से हम लोग एक अकादमी चला रहे हैं। 2 साल पहले जब हम पहली बार इन लोगों से मिले और उन्हें बताया कि हम उनके बच्चों को पढ़ाने में मदद करना चाहते हैं, तो उन्होंने कहा आप आए उसके लिए धन्यवाद लेकिन हमें अब और उम्मीद नहीं चाहिए। आपसे पहले भी बहुत लोग आए और चले गए। आप भी उनमें से हैं। यह सब सुनकर हमें एक बात का एहसास हो गया कि जितना हम सोच रहे थे, चीज़ें यहां उतनी आसान नहीं होंगी।

हमने अपने साथियों की मदद से बस्ती के प्रत्येक परिवार का सर्वे किया, तो पता चला ज़्यादातर बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं, कारण उनके पास आधार कार्ड जैसे ज़रूरी कागज़ात नहीं होना है। बिना पहचान पत्र के स्कूल में दाखिला मिलना आसान नहीं है।

पढ़ाने की जगह ढूंढना भी नहीं था आसान

स्लम के बच्चों के साथ रॉबन हुड आर्मी

हमने 50 बच्चों के साथ अकैडमी शुरू की लेकिन एक समस्या फिर सामने थी कि इन्हें कहां पढ़ाया जाए। काफी ढूंढने के बाद बस्ती के पास स्थित रैन बसेरे को तय किया गया। कुछ दिन तक ठीक था लेकिन रैन बसेरे में रहने वाले लोगों ने परेशान करना शुरू कर दिया है। उनमें रहने वाले अधिकांश लोग नशे की लत के शिकार थे, इसलिए समस्या और बढ़ रही थी।

सारी परेशानियों के चलते हमने मजनू के टीले की बस्ती में स्थित दूसरे रैन बसेरे में बच्चों को पढ़ाना शुरू किया लेकिन वहां भी वही समस्या। साथ ही वह जगह बस्ती से दूर थी, जिससे बच्चों को लाने और वापस ले जाने में दिक्कत हो रही थी। इसके बाद कुछ महीने तक हमने बस्ती के सामने फुटपाथ पर बच्चों को पढ़ाया लेकिन कोई-ना-कोई समस्या सामने आ ही जाती। गाड़ियों की शोर, लोगों के भद्दे कमेन्ट्स, तेज़ धूप जैसी परेशानियों से बच्चे बढ़े परेशान होते थे।

हमारी मेहनत को देखकर बस्ती के लोगों ने, बस्ती के बीच स्थित एक खाली जगह में पढ़ाने को कहा। वह खाली जगह दरअसल उनके बस्ती के बीच का रास्ता था लेकिन शोर-शराबे से दूर और एकदम शांत जगह थी, जहां बच्चे बिना किसी दखल के पढ़ाई कर सकते थे।

स्लम के बच्चों के साथ रॉबिन हुड आर्मी

तब से हम लोग बस्ती के अंदर ही बच्चों को पढ़ा रहे हैं। जिन बच्चों के ज़रूरी कागजात नहीं थे, उन्हें बनवाया और उन बच्चों का स्कूल में दाखिला करवाया।

पढ़ाई के अलावा अन्य रुचियों पर भी देते हैं ध्यान

प्रतिदिन हमारे साथी वहां रहने वाले बच्चों को पढ़ाने का काम करते हैं। हमारे साथियों में स्टूडेंट्स, नौकरी पेशा सभी शामिल हैं, जो अपने हफ्ते के तय दिनों में बच्चों के पास जाते हैं। पढ़ाई के साथ बच्चों के अंदर छुपे हुनर को निखारने का काम भी करते हैं, साथ ही नुक्कड़-नाटक, निबंध लेखन, ड्रॉइंग के माध्यम से उन्हें और उनके परिवारों को जागरूक किया जाता है। पिछले दिनों बच्चों के लिए संगीत की क्लास शुरू हो चुकी है। बच्चों का जन्मदिन हो या कोई त्यौहार, इसी बस्ती में मनाए जाते हैं।

2 साल के उतार-चढ़ाव वाले इस सफर में बच्चों और उनके माता-पिता से हमारा एक अनूठा रिश्ता बन चुका है। एक ऐसा भरोसा, जो बड़ी मेहनत से कायम हुआ है और उन बच्चों से एक उम्मीद कि आगे जाकर ये अपनी मंजिल ज़रूर हासिल करेंगे, भले परिस्थितियां कैसी भी रहें।

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