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“युद्ध के हालातों में नफरत नहीं मोहब्बत ज़िंदा रखना देश के लिए ज़रूरी है”

जब आधी दुनिया जंग के खुमार में सराबोर हो उस वक्त मोहब्बत अगर दिलों में कहीं महदूद रह जाती है, तो यह जीत होगी इंसानियत के पक्षधर दुनिया के अमनपसंद लोगों की। उन अमनपसंद लोगों की, जिन्होंने मज़हब, जातीयता और राष्ट्रीयता की संकरी दीवारों के परे दुनिया को देखने की हिमाकत करने की ठानी।

राष्ट्रवाद के नाम पर पिछली शताब्दी में लड़े गए दो विश्वयुद्ध से हम कितना कुछ सीख पाएं हैं? राष्ट्रवाद के नाम पर दुनिया की साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा अधिक-से-अधिक उपनिवेश हड़पने की सारी कवायद किस तरह मानवता के लिए मानव निर्मित सबसे बड़ी त्रासदी बनकर उभरी?

भारत में अपने पैर जमा चुका है यूरोप के विकृत राष्ट्रवाद का कॉन्सेप्ट

यूरोप का वही विकृत राष्ट्रवाद भारत और भारतीय उपमहाद्वीपों में आज अपने पांव गहरे रूप में जमा चुका है। लोगों के भीतर वही साम्राज्यवादी मानसिकता घर कर गई है, जिसके खिलाफ हमने एक लंबा संघर्ष कर अपने लिए स्वतंत्रता हासिल की थी। आज़ादी के मायने तब धूमिल हो जाते हैं, जब हम वही शोषण प्रणाली सहजता से अपना कर किसी के शोषण का औजार बन जाते हैं, जिसके द्वारा कभी हम भी उसके भुक्तभोगी रह चुके हैं।

कुछ ऐसे भी कूपमंडूक मौजूद हैं, जिन्हें आम कश्मीरियों के मानवाधिकार की बातें उठाना नागवार गुज़रती हैं, जो एक आम कश्मीरियों के बुनियादी अधिकारों से जुड़े हुए हैं।

इनके हिसाब से जम्हूरियत इंतकाम पूरा करने की कोई संस्थान है, जिसमें बेकसूरों को भी झुलसना सिर्फ इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि फलाना मज़हब के कुछ लोगों ने कभी इस वहशत को अंजाम दिया था। बाबर की गलतियों का हिसाब जब जुम्मन मियां से लिए जाने की रवायत आम बन चुकी है, तब जम्हूरियत अपनी परिणीति तक पहुंचने का रास्ता स्वयं ढूंढ लेती है।

कश्मीरियों के मुद्दे पर हुकूमत द्वारा सांप्रदायिकरण हुआ

कश्मीरी महिलाएं। फोटो सोर्स- Getty

पुलवामा हमले में शहीद हुए जवानों का जिस तरह देश में हुकूमत द्वारा सांप्रदायिकरण हुआ, उसकी दहशत को पूरे देश ने बहुत करीब से महसूस किया। जाड़े के दिनों में कंधों पर शॉल और कालीन बेचने वाले कश्मीरी, दहशतगर्द नहीं थे पर उन्हें अपनी कश्मीरी पहचान की कीमत अदा करनी पड़ी।

श्रद्धांजलि में राजनीतिक मोहर चढ़ाना ना सिर्फ घृणित कार्य है बल्कि अमानवीयता की परकाष्ठा है परंतु इस अमानवीयता को ही तो सोशल मीडिया के ज़रिए सहज, सामान्य बनाकर आम जन को विराट गौरव की अनुभूति महसूस कराई गई। जवानों की शहादत की एक भी जवाबदेही घटना के आठ महीने बाद भी तय ना होना कितना सामान्य बन गया।

कहां गएं “आई वॉन्ट रिवेंज़” कहकर राष्ट्रवाद का परिचय देने वाले?

वे लोग जो “आई वॉन्ट रिवेंज़” लिखकर राष्ट्रवाद का परिचय दे रहे थे, वे आज तक इस अन्याय पर कैसे खामोश रह गएं? हां, इस दरमियान एक लम्बा लोकसभा चुनाव बीत गया पर सरहद पर शहीद हुए जवानों के लिए इंसाफ कहां गायब हो गएं?

इंसाफ तो दूर की बात है अब तो “आई वॉन्ट रिवेंज़” वाले इस मंदी के दौर में कश्मीर में ज़मीन खरीदने की तैयारियों में जुटे दिखाई दे रहे हैं। तो क्या आपका राष्ट्रवाद एक क्षणिक उत्तेजना भर था, जिसके आवेश में आकर आप दो देशों को बीच युद्ध की स्थिति पैदा करने वाली ताकतों के सहचर बन गए थे।

एक पल ठहरकर सोचिए इस युद्ध की स्थिति पैदा करने में देश के भीतर मज़हबी आधार पर दुश्मन तलाशने की कवायद को किस तरह बल मिला। हमें खुद से ही यह सवाल भी करना ज़रूरी है कि वे तमाम ताकतें, जो बिना किसी आधार के कश्मीरी और मुसलमान पहचान को इस घटना का दोषी ठहराते हुए सड़कों पर जुलूस निकाल रही थीं, वे अचानक अब एक लम्बे समय से खामोश क्यों हैं?

पुलवामा हमले में शहीद जवान। फोटो सोर्स- सोशल मीडिया

आज भी पुलवामा के शहीद जवानों को इंसाफ मय्यसर नहीं हुआ पर जो इंतकाम लेने की ख्वाहिश पाल रहे थे, आज उनकी हिम्मत सरकार से चंद सवालात करने से क्यों हिचकती है।

सोशल मीडिया के ज़रिए इंतकाम की भावना को जिस तरह कट्टरपंथियों ने घर-घर तक पहुंचा पाने में सफलता अर्जित की है, वह निश्चित ही लोकतांत्रिक समाज में सौहार्द कायम रखने के लिए बेहद भयावह परिस्थितियां पैदा कर रही है। अलग-अलग धार्मिक मान्यताओं जातियों और जनजातियों के लोगों के बीच बिना किसी सौहार्द के हम किस लोकतंत्र की परिकल्पना कर सकते हैं?

क्या है लोकतंत्र की बुनियाद

लोकतंत्र की बुनियाद ही इस बात पर टिकी है कि सबसे कम संख्या वाले गुट की बातें उतनी ही शिद्दत के साथ सुनी जाए, जितनी सबसे ज़्यादा संख्या वाली गुट की बात सुनी जाती है।

बहुसंख्यक समुदाय का सांस्कृतिक आधिपत्य (Cultural Hegemony) एक लोकतांत्रिक देश के हर विविध समुदायों पर थोपना फासीवाद को जन्म देता है, जिसका उपयोग पिछली शताब्दी में हिटलर और मुसोलिनी ने करके मानवता को शर्मशार किया था।

उस नाटक का अंत जब लिखा जाएगा तब तमाम लाशों और खून से भरे इतिहास के पन्नों के दरमियान कुछ ऐसे भी तस्वीरे होंगी, जो युद्ध के दावानल से किसी रौशन पहलू को उजागर करते हुए मोहब्बत का पैगाम दुनिया में फैलाएंगी।

1945 में अमेरिका के लाइफ पत्रिका में न्यूयॉर्क के टाइम्स स्क्वायर पर एक नाविक और एक नर्स के सार्वजनिक चुम्बन का चित्र प्रकाशित हुआ, जिसने बारूद में खौल रही दुनिया को राहत मयस्सर कराई। फोटोग्राफर अल्फ्रेड आइसेनस्टेदट द्वारा ली गई इस तस्वीर को द्वितीय विश्वयुद्ध के समापन के उद्घोष की तरह देखा जाता है।

आज विश्वयुद्ध के 74 वर्ष के बाद भी जब कभी युद्ध की सुगबुगाहट सुनाई देती है, तब लोगों के भीतर व्याप्त प्रेम की दरकार नफरत को कम करने में सबसे अधिक महसूस की जाती है। पाश की कविता “सबसे खतरनाक” का यह अंश इस संदर्भ में कितना जीवंत प्रतीत होता है।

सबसे खतरनाक वो आंख होती है

जो सबकुछ देखती हुई जमी बर्फ होती है

जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्बत से चूमना भूल जाती है

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