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“शिक्षक दिवस के रोज़ गुरुजी की पिटाई आज बरबस याद आ गई”

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- pixabay

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- pixabay

गुरु कौन हैं?

युगों वाले दौर में वेद-पुराणों द्वारा गुरु शिष्य के कई रिश्तों का बखान किया गया। द्रोणाचार्य और एकलव्य वाला याद है, क्योंकि उसमें गुरुजी अपने शिष्य से गुरुदक्षिणा में उसका अंगूठा मांग लिए थे। प्रेम रहा होगा गुरु शिष्य का।

हम सब कभी ना कभी स्टूडेंट होते हैं, हैं तो आज भी बस टैगहीन हैं। स्टूडेंट लाइफ से गाँव में मेरे दो और शहर में ढेर सारे गुरु हैं। (गुरु को कभी ‘थे’ नहीं कहते)

‘क’ गाँव में ही सीखा था और ‘क’ से कबूतर शहर में। फर्क बस इतना था कि पिताजी के लिए गाँव वाले गुरुजी माटसाहब थे और शहर में सर। मेरे लिए फर्क बस इतना कि अब मैं माँ के पास चूल्हे के नज़दीक, डिबिया की रौशनी में, प्लास्टिक के बोरे से उठकर लकड़ी की बेंच-डेस्क पर पढ़ने लगा था।

वह डिबिया की रौशनी इसलिए याद है क्योंकि माँ किसी पुरानी साड़ी को फाड़कर बाती बनाया करती थी। गाँव के दो गुरु में माँ पहली है आज भी।

20वीं शताब्दी के अंतिम दौर में गाँव के बिना छत वाले विद्यालय से एक छत वाले स्कूल में आ गया था। 20वीं और 21वीं शताब्दी की शुरुआती दौर में मैं एकलव्य जैसा स्टूडेंट था। एकलव्य और मेरे स्टूडेंट लाइफ के दौर आने तक बहुत चीज़ें बदली, जिनमें से एक था “गुरुकुल” का “स्कूल” हो जाना।

स्टूडेंट लाइफ की तमाम यादों में से एक याद आपके साथ साझा कर रहा हूं। स्कूल के दिनों में नकल करते हुए जब पकड़ा गया था, तब बांस की करची मंगवा कर गुरुजी ने बहुत पिटाई की थी। एक दम लाल कर दिए थे मार के! 20वीं शताब्दी वाले हर स्टूडेंट को आज शिक्षक दिवस के अवसर पर गुरुजी द्वारा पिटाई याद करके आनंद ही आता होगा।

खैर, उस वक्त कई वजहों से गुस्सा भी आता था। कई दफा यह सोचता था कि काश नकल ना किया होता, वहीं इस बात पर भी क्रोध आता था कि गुरुजी ने आखिर पिटाई क्यों की!

स्टूडेंट लाइफ का कुछ भाग, गुरुजी के कहने पर मुर्गा बनने और घुटने को झुकाकर कुर्सी बनने में भी गया है। पीड़ा तो होती थी लेकिन कभी गुरु से द्वेष या बदले का नहीं सोचा। अभी वास्तविक जीवन में कई गलतियां हो जाती हैं मगर अब कोई मुर्गा बनने के लिए नहीं कहता है।

फिर 21वीं शताब्दी के आगाज़ में यह महसूस किया कि बहुत ही तीव्र गति से शिक्षक बनने की होड़ है। जिस तरीके से शिक्षक बनने को एक पेशा और शिक्षा देने को व्यापार का हिस्सा बनाया जा रहा है, काफी चिंतित हूं इससे।

फोटो साभार- pixabay

अब पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा की अहमियत उतनी ही है, जितनी पोलर बियर को आइसलेस जगह की। पता है क्या होगा एक दिन? नैतिकता तो रही नहीं, शिक्षा भी कहीं मर जाएगी। एक गुरु द्वारा ही स्टूडेंट को इस बात का बोध करवाना होगा कि परीक्षा में कम नंबर लाने से आप सिर्फ परीक्षा में ही फेल होते हैं मगर अपने जीवन में संस्कार, व्यवहार, प्रेम और विनम्रता ना सीखने से आप ताउम्र फेल हो जाते हैं।

जीवन में कितने भी पाठ्यक्रम क्यों ना पढ़ लीजिए लेकिन आखिर में वह संस्कार वाला अध्याय ही काम आता है। वर्तमान या भविष्य में अगर आपकी भी कोई संस्थान, कोचिंग सेंटर या विद्यालय की शुरुआत करने की योजना है, तो एक बात स्मरण में रखिएगा कि एक स्टूडेंट का सफल व्यक्ति बनना, गुरु तय नहीं करते, वे उनकी मेहनत का हिस्सा हो सकते हैं लेकिन एक स्टूडेंट का सभ्य इंसान बनना, सिर्फ गुरु तय कर सकते हैं।

यह शताब्दियों का आना-जाना चलता रहेगा मगर ज़रूरी है कि गुरु-शिष्य का रिश्ता बना रहे। कोई भी स्टूडेंट कभी अपने जीवन काल मे गुरु को कुछ शब्दों में परिभाषित नहीं कर सकता, क्योंकि गुरु तो अपरिभाषित हैं और रहेंगे। ठीक उसी प्रकार जैसे प्रेम शब्द को आप महसूस कर के ज़्यादा आनंदित होते हैं।

आज गुरुओं की कमी महसूस करता हूं। कोशिश करता हूं कि अब वास्तविक जीवन मे खुद का गुरु बनूं, क्योंकि हर एक व्यक्ति को पता है कि वह क्या सही कर रहा है और क्या गलत। गुरु भी तो यही फर्क बताते हैं ना।

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