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“मेरे स्कूल में बच्चे हिन्दी के शिक्षक की इज्ज़त ही नहीं करते थे”

फोटो साभार- Flickr

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आज हिन्दी दिवस के मौके पर लोग सोशल मीडिया के ज़रिये हिन्दी भाषा के प्रति सम्मान और मोहब्बत की मिसाल पेश कर रहे हैं। सुबह मैं भी सोच रहा था कि कुछ बेहतरीन सा लिखकर फेसबुक वॉल पर पोस्ट करूं। यही कुछ 100-150 लाइक्स आ जाते तो शायद मैं खुश हो जाता।

अचानक मुझे अपने स्कूल के दिनों की याद आ गई, जब लगातार 7 विषय अंग्रेज़ी भाषा में पढ़ने-समझने के बाद हिन्दी के शिक्षक आते थे, तो हमें कैसा महसूस होता था। हमारे विद्यालय में हिन्दी विषय को सबसे आखिरी वाले पीरियड में रखा जाता था, जिससे कई प्रकार की समस्याएं उत्पन्न होती थीं।

जैसे- हमे नींद आने लगती थी, हम बोर हो चुके होते थे और इन सबसे ज़्यादा ज़हन में यह होता था कि कब हिन्दी वाले मास्टर साहब पढ़ाकर जाएं और कब हमलोग दौड़ते-भागते हुए अपने-अपने घर पहुंचे।

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खैर, समा बांधने के लिए इन अनुभवों को भी आपके साथ साझा करना ज़रूरी था। मोटे तौर पर इस बारे में तो आपकी समझ बन ही गई होगी कि किस प्रकार से मेरे स्कूल में हिन्दी को अंतिम पीरियड में रखा जाता था। हिन्दी के साथ यह अन्याय नहीं तो और क्या था?

आज यदि तमाम भषाओं के बीच हिन्दी अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहा है, तो इसके लिए इंग्लिश मीडियम स्कूल के वे तमाम संस्थापक ज़िम्मेदार हैं जो अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल का दबदबा बनाए रखने के लिए हिन्दी को अंतिम पीरियड में रखते थे।

हिन्दी के शिक्षकों को हमने कभी सीरियसली लिया ही नहीं है। मुझे याद है जब अंकुर रंजन (बदला हुआ नाम) अंतिम पीरियड में हमें हिन्दी पढ़ाने आते थे, तब क्लास में मौजूद बच्चे बेंच पीटने लगते थे। यही नहीं, मुझे याद है जब अंकुर रंजन सर रामधारी सिंह दिनकर की कहानी पढ़ा रहे थे, तब मेरे ही एक मित्र ने उनकी पैंट की ज़ीप के पास लेज़र लाइट जला दिया।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

अब आप खुद समझने की कोशिश करिए कि एक तो हिन्दी के शिक्षक को आप अंतिम पीरियड में पढ़ाने के लिए बुला रहे हैं और जब वह पूरी एनर्जी के साथ पढ़ाने के लिए आते हैं, तब बच्चे उन्हें परेशान करने के लिए ऐसी हरकत करते हैं। ऐसे में क्या उस शिक्षक को पढ़ाने का मन करेगा?

साथियों, आलम यह हुआ कि लगातार स्टूडेंट्स द्वारा कभी बेंच ठोकने और पैंंट की चेन पर लेज़र लाइट चमकाने से उनका मनोबल इस कदर टूट गया कि कई दफा तो वे क्लास आने ही नहीं लगे। वे जब भी आते थे, तब पीछे से कुछ बच्चे ‘रंजनवा-रंजनवा’ कहकर चिल्लाने लगते। सच कहूं तो मेरे स्कूल में बच्चे हिन्दी के शिक्षक की इज्ज़त ही नहीं करते थे।

मेरे एक मित्र ने तो बाज़ार में उन्हें पीछे से धक्का ही दे दिया था। अब जब एक इंग्लिश मीडियम स्कूल में हिन्दी के शिक्षक के साथ ऐसा व्यवहार होने लगे, तो आप ज़रा कल्पना करके देखिए कि क्या उस शिक्षक को पढ़ाने का मन करेगा?

ऐसे में स्टूडेंट्स की हिन्दी कैसे अच्छी होगी? अभी भी वक्त है यदि हम संभल गए और अपने-अपने हिन्दी के शिक्षकों को उचित सम्मान देने लगें तो ना सिर्फ हमारी हिन्दी अच्छी होगी, बल्कि एक राष्ट्र के तौर पर जिस हिन्दी भाषा की वजूद पर इतनी चर्चा हो रही है, उस दिशा में भी हम सफलता हासिल कर लेंगे।

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