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“सनी लियोनी को मिसाल बनाकर कैसा सशक्तिकरण चाह रहा है समाज?”

वैसे तो ज़िन्दगी में अब तब कई बार टूटी हूं, मुश्किलों के कई दौर से गुज़री हूं, बड़ी-बड़ी परेशानियों का सामना किया है, पर हर बार पिता के दिए संस्कारों का अर्थ समझा कि कामयाबी का सबसे अच्छा रास्ता और ज़िन्दगी की असली मंज़िल, अकसर मुश्किलों-भरे रास्तों से ही गुज़रकर मिलती है। वह मंजिल जिसमें हमारा आत्म-सम्मान हमारे पास सुरक्षित रहे।

किन्तु आज मन दुखी हुआ है जब मैंने रामगोपाल वर्मा की एक शोर्ट फिल्म देखी कि मेरी बेटी सनी लियोनी बनना चाहती है”। सोच रही हूं कि क्या आज की एक बेटी को सिर्फ कामयाबी का रास्ता सनी लियोनी बनाकर दिखाया जा रहा है?

क्या कहती है फिल्म?

साढ़े ग्यारह मिनट की इस फिल्म में तीन पात्र दिखाए गए हैं।

एक युवा लड़की अपने माता-पिता को यह बता कर हैरान कर देती है कि वह सनी लियोनी बनना चाहती है।  माता-पिता उससे सवाल करते हैं और लड़की तर्क सहित जवाब देती है जिसमें सबसे बड़ा खास तर्क वो यह रखती है कि जैसे व्यापारी अपना माल बेचकर मुनाफा कमाता है, वैसे ही यदि मैं अपना शरीर बेचकर मुनाफा कमा लूं तो इसमें शर्म की क्या बात है?

कई लोग इस फिल्म को महिला सशक्तिकरण से जोड़कर देख रहे हैं। पर क्या वास्तव में पैसा और शोहरत कमाने के लिए शरीर बेचना महिला सशक्तिकरण है? क्या देह व्यापार में जबरन धकेली गई सभी मासूम लड़कियां सशक्त महिला हैं और आज की युवा बेटियों की आदर्श हैं?

यदि यही महिला सशक्तिकरण है तो फिर इन महिलाओं के लिए स्कूल, कॉलेज उसकी पढ़ाई इन सबके क्या मायने है? बस उम्र का पन्द्रहवा साल पार करते ही उसे बेचकर उसका महिला सशक्तिकरण कर दिया जाए?

मुझे नहीं पता मेरे इस प्रश्न का उत्तर लोग कैसे देंगे पर जैसे भी देंगे उससे उनकी सोच ज़रुर पता चल जाएगी। हां इसमें मेरा जवाब यह ज़रुर है कि यह महिला सशक्तिकरण का मार्ग बिलकुल नहीं है। इससे आज की एक मासूम बच्ची सिर्फ कमज़ोर होगी और वह यह सोचेगी कि उसका जिस्म सिर्फ उसकी दुकान है।

रामगोपाल वर्मा की फिल्म ‘मेरी बेटी सनी लियोनी बनना चाहती है’ का दृश्य, फोटो साभार – YouTube

विज्ञान के साथ संस्कृति और संस्कारों को भी जगह दें

शायद कुछ लोग यह समझे कि मेरी सोच खुली नहीं है, मैं आधुनिक नहीं हूं। पर मैं बता सकती हूं कि महिला या पुरुष अपने परिधान बदलने या खाना-पीना बदलने से आधुनिक नहीं होते।आधुनिकता का सही अर्थ यह है कि विज्ञान के साथ अपनी संस्कृति और संस्कारों को भी लेकर चला जाए।

हो सकता है कुछ लोग मुझे समझाए कि पोर्न स्टार सनी लिओनी उर्फ करनजीत कौर ने बड़े सुख-दुख से गुज़र कर यह मुकाम हासिल किया है। तो मैं उन्हें बता सकती हूं कि मैं भी तकलीफ में थी, मेरी पीड़ा दूसरों से कम नहीं थी, हर तरफ निराशा थी, ना-उम्मीदी थी, फिर भी इसी अंधियारे-भरे समय में एक परिवर्तन हुआ।

मैं अच्छी तरह जान गई कि पूरी ताकत, लगन और ईमानदारी से संघर्ष किया जाए तो विपरीत परिस्थितियों और मुश्किलों में भी एक ऐसी शक्ति हासिल की जा सकती है जिससे एक अद्वितीय जीत मिलती है और वो मैंने हासिल भी की। इसका कारण यह फिल्म नहीं है, इसका कारण है मेरे माता-पिता के दिए संस्कार।

यह है असली सशक्तिकरण

मैंने बचपन में महर्षि वाचकन्वी की पुत्री गार्गी के बारे में पढ़ा था। वह मेरी आदर्श थी। वहीं मेरी आदर्श राजा जनक की पुत्री सीता भी थी जिसने ना रावण के सामने हार स्वीकार की और ना अपने पति के सामने। इनके अलावा विश्ववारा, लोप मुद्रा, घोषा, इन्द्राणी, देवयानी यह सब मेरी बचपन की आदर्श सशक्त महिला थी।

जब थोड़ी बड़ी हुई और जीवन के संघर्ष देखें, तब मैंने पढ़ा महारानी लक्ष्मीबाई और रानी दुर्गावती के बारे में। आगे बढ़ी तो सुना कप्तान लक्ष्मी सहगल के बारे में जो नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा स्थापित ‘आजाद हिंद फौज के लिए अपने हाथों में बंदूक थामकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक शेरनी की भांति लड़ी थीं।

इसके बाद लक्ष्मी जैसी महिलाओं के बारे में जाना जो एक नया नज़रिया लेकर समाज के सामने हैं। एसिड अटैक से उनके चेहरे के जलने के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और आज वे एसिड अटैक से सरवाईवर महिलाओं के लिए काम कर रही हैं।

जब थोडा और आगे बढ़ी तब सुना अरुणिमा सिन्हा को, जिन्होंने एक एक्सीडेंट में अपना एक पैर खोने के बावजूद दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत चोटी एवरेस्ट को फतह किया और ऐसा करने वाली वह विश्व की पहली निशक्त महिला पर्वतारोही बनी।

रामगोपाल वर्मा की फिल्म ‘मेरी बेटी सनी लियोनी बनना चाहती है’ का दृश्य, फोटो साभार – YouTube

आखिर किस लिहाज से रामगोपाल वर्मा सनी लियोनी को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया? जबकि आदर्श तो यह है कि भारतीय महिला मुक्केबाज मैरी कॉम को तीन बच्चों की माँ बनने के बाद भी जब देश के लिए ओलंपिक्स में भाग लेने का मौका आया, तो वह पीछे नहीं हटी।

मैं रामगोपाल वर्मा को महिला सशक्तिकरण के कुछ और आदर्श सुझाव स्वरूप भेंट कर रही हूं। वे महिलाओं को बता सकते हैं कि मशहूर दवा कंपनी बायोकॉन की मालकिन किरण मजूमदार शॉ ने 10 हज़ार रुपये से अपनी कंपनी शुरु की थी जो आज अरबों रुपये का कारोबार कर रही है।

असम के गरीब किसान की बेटी हिमा दास फटे जूते पहनकर देश के लिए अंडर-20 में गोल्ड मैडल जीतकर ले आती है। कैसे एक छोटे से राज्य से निकली दीपा कर्माकर जिमनास्टिक्स की दुनिया को हिला आती है। कितना संघर्ष कर भारत की बेटी कल्पना चावला अपने बुलंद हौसलों से अन्तरिक्ष में एक अनूठी इबारत लिख देती है। कैसे अपनी मेहनत के बल पर मिताली राज भारतीय महिला क्रिकेट टीम का अंतर्राष्ट्रीय दबदबा मनवा लेती है।

कल जब मेरी बेटी बड़ी होगी तब मैं उसे ऐसी फिल्मों से दूर रखना चाहूंगी। मैं खुद उसकी आदर्श बनूंगी, मैं उसे बताउंगी कि एक नारी सिर्फ पेट के निचले हिस्से तक नहीं होती बल्कि उसके पास दिल, दिमाग, संघर्ष और जज़्बा भी होता है। वह कमज़ोर नहीं है कि उसे पेट से नीचे का हिस्सा बेचकर ऊपर का हिस्सा भरना पड़े। मैं उसे बताऊंगी कि शरीर और आत्मा बेचने की वस्तु नहीं है।

मैं उसे महिला संघर्ष और सशक्तिकरण की अद्भुत -असाधारण घटनाओं से भरी कहानियां सुनाऊंगी ताकि वह एक सशक्त महिला बने और जिस पर आने वाली युवा बेटियां गर्व करें।

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