क्या आपने कभी सोचा है कि अपराधी किस धर्म और मज़हब का होता है और कौन से मज़हब के लोगों का अपराध की तरफ ज़्यादा झुकाव होता है? अगर आपने कभी ऐसा नहीं सोचा है तो हम आपको बताते हैं कि हाल ही में हुए एक सर्वे, स्टेटस ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट 2019 के मुताबिक,
देश में हर दो पुलिसकर्मी में से एक का मानना है कि मुसलमानों का स्वभाविक रूप से अपराध की तरफ ज़्यादा झुकाव होता हैं।
आपको बता दें कि स्टेटस ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट 2019 का सर्वे 21 राज्यों में हुआ था जो कि 12000 पुलिसकर्मियों और उनके परिवार के करीब 11000 सदस्यों के इंटरव्यू पर आधारित है।
यह सर्वे एनजीओ कॉमन कॉज और सीएसडीएस की ओर से किया गया है जो कि यह जानने के लिए किया गया था कि आखिर पुलिसकर्मियों के कामकाज के हालात किस तरह के हैं।
क्या कहना है पुलिसकर्मियों का
इस सर्वे के अंतर्गत पुलिस वालों ने अपनी राय ज़ाहिर की है। साथ ही इस रिपोर्ट में बहुत चौंकाने वाली बातें भी सामने आई हैं। सबसे अहम बात यह रही कि इस रिपोर्ट से यह पता चला है कि हमारे पुलिसकर्मियों की मानसिकता कैसी है।
आईए जानते हैं कि स्टेटस ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट 2019 में और क्या-क्या बातें सामने आई हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि हमारे पुलिसकर्मियों का देश के अहम मुद्दों पर क्या सोचना है। रिपोर्ट में लिखा है कि
- 35 फीसदी पुलिसकर्मियों को लगता है कि गौहत्या के मामलों में भीड़ का मारपीट करना स्वाभाविक है।
- 43% पुलिसकर्मी सोचते हैं कि रेप के आरोपी को भीड़ द्वारा सज़ा देना स्वाभाविक बात है।
- 56% पुलिसकर्मियों के मानना है कि ऊंची जाती के लोग (हिन्दू) अपराध नही करते हैं।
- 37 फीसदी पुलिसकर्मी का मानना है कि मामूली अपराधों के लिए पुलिस को सजा देने का अधिकार होना चाहिए और इसके लिए कानूनी ट्रायल नहीं होना चाहिए।
साथ ही 28% पुलिस कर्मियों का मानना है कि राजनेताओं का दबाव किसी भी अपराध की जांच में सबसे बड़ी बाधा है। रिपोर्ट के अनुसार 3 में से 1 पुलिसकर्मी यह बात स्वीकारता है कि किसी भी अपराध के जांच के दौरान पॉलिटिकल प्रेशर झेलना पड़ता है। यह बात अपने आप में एक बड़ा खुलासा है और साथ ही सोचने वाली बात भी है।
उसी तरह और भी कई मामले हैं जहां पुलिसकर्मियों ने अपनी राय साझा की। जैसे-
- पांच में से एक पुलिसकर्मी को लगता है कि एससी-एसटी एक्ट के तहत आने वाले मामले झूठे और किसी खास मकसद से दायर किए जाते हैं।
- 41% पुलिसकर्मियों का कहना है कि जब कभी किसी क्राईम सीन पर तुरंत या वक्त पर इसलिए नहीं पहुंच पाते क्योंकि उनके पास गाड़ी नहीं होती।
रिपोर्ट से पता चलता है कि एक पुलिसकर्मी द्वारा हर रोज़ औसतन 14 घंटे काम किया जाता है। इसके अलावा 80% पुलिसकर्मी को 8 घंटे से ज़्यादा ड्यूटी करनी पड़ती है।
मूलभूत चीज़ें भी हैं चिंता की विषय
चलिए काम के घंटे और काम के प्रेशर के इतर अगर मूलभूत चीज़ों को देखें तब भी यह रिपोर्ट चौंका देती है। इस रिपोर्ट के अनुसार,
- 12% पुलिस स्टेशनों में पीने का पानी नहीं है और इसके अलावा 18% ने कहा कि उनके यहां टॉयलेट नहीं है।
- साथ ही यह भी सामने आया कि हर दो में से एक पुलिस वाले को वीकली ऑफ नहीं मिलता।
- हर पांच में से एक पुलिसकर्मी को लगता है कि खतरनाक अपराधियों के लीगल ट्रायल से अच्छा उनको मार देना चाहिए।
- 5 में से 4 पुलिसकर्मियों को लगता है कि अपराध स्वीकार कराने के लिए पुलिस द्वारा अपराधियों को पीटना गलत नहीं होता।
- हर 5 में से 2 पुलिसकर्मी को लगता है कि आमलोग पुलिस से सम्पर्क करने में हिचकिचाते है ,हालांकि उनको ज़रूरत हो तब भी।
आपको बता दें कि यह रिपोर्ट बीते दिन सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जे.चेलामेश्वर द्वारा रिलीज़ की गई थी जिससे ये सारी बातें सामने आई। इस रिपोर्ट के रिलीज़ के दौरान पुलिसकर्मियों और व्यवस्था पर अपनी बात रखते हुए जस्टिस चेलामेश्वर ने कहा,
एक समर्पित अधिकारी बहुत बड़ा बदलाव ला सकता है। लेकिन ऐसे अफसरों की वहां तैनाती करेगा कौन?
साथ ही पुलिस के ऊपर राजनैतिक दबावों के बारे में बात करते हुए कहा,
किसी का सज़ा के तौर पर ट्रांसफर करा देना एक समस्या है। यहां तक कि जजों को भी इस समस्या का सामना करना पड़ता है, जबकि वह एक संवैधानिक पद पर हैं लेकिन वह भी ट्रांसफर की इस समस्या से सुरक्षित नहीं हैं।
यही नहीं चेलामेश्वर ने इस दौरान अपना भी कुछ अनुभव साझा किया कि कैसे एक वक्त पर पुलिस ने कानून को किनारे रख दिया था। उन्होंने बताया कि अदालती कार्रवाई के दौरान उन्होंने भी महसूस किया है कि पुलिस द्वारा कई बार नियमों को दरकिनार कर दिया जाता है।
उन्होंने पुलिसकर्मियों को दी जाने वाली ट्रेनिंग पर भी सवाल उठाए और कहा,
हम अपने अधिकारियों को क्या ट्रेनिंग देते हैं? सिविल और क्रिमिनल प्रोसेड्योर कोड्स की छह महीने की ट्रेनिंग, आईपीसी और एविडेंस एक्ट मात्र को ही पर्याप्त नहीं माना जा सकता ।
आप देख ही सकते हैं कि इस रिपोर्ट में बहुत सारी बातों का खुलासा हुआ है लकिन सबसे चौंकाने वाली बात जो सामने आई वह यह कि 50% पुलिसकर्मियों का मानना हैं कि किसी भी अपराध की तरफ सबसे ज़्यादा झुकाव मुसलमानों का होता है।
यह बात हमारे पुलिसकर्मियों की मानसिकता को दिखा रही है और यह बता रही है कि वे मज़हब के आधार पर अपराधी को जज करते हैं। मुझे नहीं लगता कि एक पढ़े-लिखे समाज और साथ ही भारत जैसे सेक्युलर देश में ऐसी सोच होनी चाहिए ।
यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर पुलिसवकर्मियों के मन में मुसलमानों के प्रति इतनी नफरत क्यों है? साथ ही यह भी सवाल उठता है कि क्यों पुलिस वाले ऐसा सोचते हैं कि किसी भी अपराध में मुस्लिम समुदाय का ज़्यादा हाथ होता है, हिन्दू का नही?
क्या अब अपराध मज़हब के नाम पर तय होगा?
सवाल यह भी है कि आखिर हमारे समाज मे जात- पात को लेकर ऐसी धारणा क्यों हैं? क्या देश की रक्षा करने वाले की ऐसी सोच हमारे समाज के लिए सही है?
क्या कोई यह देख कर अपराध करता है कि मैं मुस्लिम हूं तो मैं अब अपराध करूंगा या मैं हिदू हूं तो मैं अपराध नही करूंगा?
मेरे हिसाब से देश के रक्षकों की ऐसी सोच बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। आप जजमेंटल कैसे हो सकते हैं? वह भी किसी के मजहब के प्रति।
यह रिपोर्ट साफ कर रही है कि हम अंदर से अभी भी कितने खोखले हैं। हम बस बाहरी रूप से भेदभाव नहीं करते, पर अंदर से अभी भी हम जात-पात से ही दूसरों को जज करते हैं। जो कि बहुत ही गलत है।
मैं बस इतना ही कहूंगी कि अपराधी किसी भी धर्म या मज़हब का हो सकता है। वह हिंदू भी हो सकता है वह मुस्लिम भी हो सकता है। अपराध करने वाले कभी भी धर्म और मज़हब के बारे में नहीं सोचते।
इसलिए मेरा मानना है कि अपराधी सिर्फ अपराधी होता है। उसका कोई भी धर्म और मज़हब नहीं होता।