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भीखाजी कामा: विदेश में भारत का झंडा लहराने वाली पहली महिला

भीकाजी कामा

भीकाजी कामा

भीखाजी रुस्तम कामा, भारत की पहली क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी महिला थीं, जिन्होंने विदेश में सर्वप्रथम राष्ट्रीय झंडा फहराया था। उन्हें मैडम कामा के नाम से भी जाना जाता है। वह भारतीय मूल की फ्रांसीसी नागरिक थीं मगर उन्होंने विदेशों में जाकर भारत के लिए स्वतंत्रता का अलख जगाने का कार्य किया था। भीखाजी रुस्तम कामा उन महिलाओं में से एक थीं, जिनके अंदर आज़ादी की आग धधकती थी।

भीखाजी कामा का जन्म 24 सितम्बर 1861 को मुंबई में एक पारसी परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम सोराबजी पटेल था और वह एक प्रसिद्ध व्यापारी थे। 1885 में उनका विवाह पारसी समाज सुधारक रुस्तमजी कामा के साथ हुआ था। उनके और उनके पति के विचार में असमानता थी। उनके पति ब्रिटिश सरकार के हिमायती थे और भीखाजी कामा एक मुखर राष्ट्रवादी थीं।

विदेश में फहराया सर्वप्रथम झंडा

उन्होंने जर्मनी के स्टटगार्ट शहर में 22 अगस्त 1907 में 7वीं अंतर्राष्ट्रीय काँग्रेस के दौरान भारतीय झंडा फहराया था। उन्होंने उस झंडे में भारत के विभिन्न समुदायों को दर्शाया था मगर वह झंडा आज के झंडे के जैसा नहीं था। अपनी अपील में उन्होंने कहा था,

यह भारतीय स्वतंत्रता का ध्वज है। इसका जन्म हो चुका है। हिन्दुस्तान के युवा वीर सपूतों के रक्त से यह पहले ही पवित्र हो चुका है। यहां उपस्थित सभी महानुभावों से मेरा निवेदन है कि सब खड़े होकर हिन्दुस्तान की आज़ादी के इस ध्वज की वंदना करें।

मैडम कामा पर किताब लिखने वाले रोहतक एम.डी. विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर बी.डी यादव बताते हैं, “उस काँग्रेस में हिस्सा लेने वाले सभी लोगों के देशों के झंडे फहराए गए थे मगर भारत के लिए ब्रिटेन का झंडा था लेकिन उसे नकारते हुए भीखाजी कामा ने भारत का एक झंडा बनाया और फहराया।”

भारत के झंडे का डिज़ाइन तैयार किया

भीखाजी ने सर्वप्रथम 1905 में अपने सहयोगियों के साथ मिलकर भारत के झंडे का डिज़ाइन तैयार किया था। उनके सहयोगियों में विनायक दामोदर सावरकर और श्याम जी कृष्ण वर्मा शामिल थे। उनके द्वारा लहराए गए झंडे में भारत देश के विभिन्न धर्मों की भावनाओं और संस्कृतियों को समेटने की शानदार कोशिश की गई थी लेकिन वह आज के तिरंगे से काफी अलग था।

उनके द्वारा तैयार किए गए झंडे में इस्लाम, हिंदुत्व और बौद्ध धर्म को प्रदर्शित करने के लिए हरे, पीले और लाल रंग का इस्तेमाल किया गया था। साथ ही उस झंडे पर “वंदे मातरम्” भी अंकित था। झंडे में हरी पट्टी पर बने आठ कमल के फुल भारत के आठ प्रान्तों को दर्शा रहे थे। आज़ादी की लड़ाई के साथ समानता की भी लड़ाई लड़ी और यही कारण है कि आज़ादी की लड़ाई और समानता की लड़ाई में इतिहास के पन्नों पर उनका नाम स्वर्ण अक्षरों से अंकित है।

यूरोप में जलाया आज़ादी का दीया

भीखाजी कामा अत्यंत जुझारु महिला थीं और सेवाभाव की भावना तो उनके अंदर कूट-कूटकर भरी थी। 1896 में जब बॉम्बे में प्लेग की बीमारी फैली थी, उस वक्त भी भीखाजी कामा ने रोगियों की सेवा में सर्वस्व समर्पित कर दिया लेकिन अपने सेवाभाव के कारण उन्हें भी यह बीमारी लग गई,  जिसके इलाज के लिए उनके परिवारवालों ने उन्हें बाहर भेज दिया।

फोटो साभार- Twitter

1902 में वह लंदन चली गईं, जहां उनकी मुलाकात क्रांतिकारी नेता श्यामजी वर्मा से हुई और वह उनसे बहुत प्रभावित हो गईं। इसके बाद उन्होंने भारत जाने का विचार ही त्याग दिया और वहीं विदेश में बस कर अन्य क्रांतिकारियों के सहयोग को जुटाकर भारत के लिए अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने में जुड़ गईं।

ब्रिटिश सरकार की नज़र

ब्रिटिश सरकार भीखाजी कामा पर हमेशा पैनी नज़र बना कर रखती थी। अब इसे ब्रिटिश सरकार का डर कहें या कुछ और। लॉर्ड कार्जन की हत्या के बाद भीखाजी कामा पेरिस चली गई थीं, जहां उन्होंने ‘होम रुल लीग’ की शुरुआत की। उनका एक सबसे लोकप्रिय नारा हुआ करता था, “भारत आज़ाद होना चाहिए, भारत एक गणतंत्र होना चाहिए और भारत में एकता होनी चाहिए।”

तीस साल से भी ज़्यादा वक्त तक भीखाजी कामा ने यूरोप और अमेरिका में क्रांतिकारी भाषणों और लेखों के ज़रिये भारत देश की आज़ादी की मांग बुलंद करती रहीं।

पहले विश्व युद्ध के दौरान वह दो बार जेल भी गईं, जिस कारण उनका भारत लौटना बेहद मुश्किल हो गया था मगर राष्ट्रवादी कार्य छोड़ने की शर्त पर उन्हें 1935 में भारत लौटने की इजाज़त मिल गई थी। हालांकि इस वक्त तक आते-आते उनकी सेहत ने उनका साथ छोड़ना शुरू कर दिया था और 1936 में उनकी मृत्यु हो गई थी। माना जाता है कि उस वक्त उनके आखिरी शब्द ‘वंदे मातरम्’ थे।

भीखाजी कामा हमेशा याद की जाएंगी

भीखाजी कामा के सम्मान में 26 जनवरी 1962 में भारतीय डाक ने उनके समर्पण और बलिदान को देखते हुए उनके नाम डाक टिकट जारी किया था। उनके सहयोगी उन्हें भारतीय क्रांति की माता कहा करते थे, तो वहीं अंग्रेज़ उन्हें कुख्यात महिला, खतरनाक क्रांतिकारी, अराजकतावादी क्रांतिकारी, ब्रिटिश विरोधी तथा असंगत कहते थे। इस तरह वो हर किसी के दिलों में आज भी ज़िंदा हैं मगर बहुत कम लोग ही उनके बारे में जानते हैं।

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