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“तेंदुआ! जंगल निगलने वालों के खिलाफ तू किस अदालत जायेगा?”

तेंदुआ

मिल गया तूझे न

अपनी करनी का फल

जो आदमियों की बस्ती में

चले आये थे ढूंढने

अपनी भूख का हल?

यह और बात है

कि तूने मारे नहीं

आदमी के एक भी पूत

कुछ के चेहरों पर

नाखून मारने के सिवाय!

तो भी आदमी को हक है

आदमियों की बस्ती में घुस आये

किसी हिंस्र चौपाये को घेर

ढेर करने का!

 

तेंदुआ

मगर तूझे तो

यह अवसर भी हासिल नहीं

कि ले जा सको किसी अदालत

यह भयावह सत्य

कि आदमी

अपनी खुद की ‘भूख’ की खातिर

चाहे तो आये दिन

जंगल के जंगल ले निगल!

 

तेंदुआ

दरअसल इस किस्से का

कुल जमा निचोड़ है

फर्क उस सभ्यता का

कि तुम घुस पड़ते हो

आदमियों की बस्ती में

कोई योजना बनाये बिना

और आदमी

जंगलों को उजाड़ने से पहले

वन विहीनता का

एक विहंगम योजना बनाता है

और पीटता है ढिंढोरा

उसकी पूरी भव्यता का!

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