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“बिहार के 1500 स्कूल ऐसे हैं जिनके पास कक्षा के नाम पर बस एक ही कमरा है”

प्राथमिक विद्यालय के बच्चे

प्राथमिक विद्यालय के बच्चे

बिहार में एक तरफ आगामी विधानसभा 2020 के चुनाव की तैयारी को लेकर सभी पार्टियों के अपने नए-नए दांव व जुमले बुनने शुरू हो गए हैं। तो वहीं दूसरी ओर राज्य में शिक्षक पात्रता परीक्षा को लेकर तारीखों का ऐलान हो गया हैं। तकरीबन 15 साल से बिहार में जनता दल यूनाईटेड और भाजपा के पहिए पर सत्ता दम-खम के साथ चल रही हैं।

साल 2015 में “बिहार में बहार है, नीतीश कुमार है”, यहीं नारा नीतीश कुमार के लिए संजीवनी सिद्ध हुआ था, जिसे राजनीतिकार प्रशांत किशोर ने गढ़ा था।

हालांकि, इस बार प्रशांत किशोर बंगाल की दीदी ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी के लिए काम कर रहे हैं।

2020 बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र बिहार जेडीयू कार्यालय व बिहार की सड़कों के किनारें नए अवतार के साथ नए नारे का पोस्टर चस्पा हो गया है, “क्यों करें विचार, ठीक तो है नीतीश कुमार”।

सच तो यह है कि बिहार की जनता, खासतौर से यहां के पढ़ने वाले छात्र व छात्राओं को ‘विचार’ तो करना ही होगा। बिहार के लिए सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह रहा है कि आज़ादी के 72 साल और 21वीं सदीं के भारत की उम्र 18 वर्ष बीत जाने के बावजूद भी, यहां की सरकारें यहां के पढ़ने वालें बच्चों के लिए सशक्त बुनियादी व प्रारंभिक शिक्षा तक नहीं मुहैया करवा पाई है।

जुमलों व नारों के बल पर बिहार के विद्यार्थियों के साथ धोखा हुआ है

2011 की जनगणना के आधार पर बिहार सरकार की यूनिफाईड जिला शिक्षा सूचना प्रणाली, 2015-16 के आंकड़ों के मुताबिक कुल जनसंख्या के 22.64% में 6 से 13 वर्ष तक की उम्र के बच्चे हैं। यानि 6 से 13 वर्ष के उम्र के बच्चों की संख्या तकरीबन 2,17,48,452 है। न्यूरोसाइंस के मुताबिक 85% दिमाग का विकास बच्चों में 6 बरस की आयु तक हो जाता हैं। साथ ही यह भी कहा जाता हैं कि यदि बच्चों की शिक्षा देर से शुरू की जाती है तो स्कूली शिक्षा में वे काफी पीछे रह जाते हैं।

हर बार बिहार की शिक्षा व्यवस्था पर गाहे-बगाहे सवाल उठते रहे हैं और चर्चाएं भी होती रही हैं लेकिन ज़रूरत हमें इस पर विस्तृत नज़र खपाने की है।

बिहार के कई प्रारंभिक शिक्षा वाले सरकारी विद्यालयों के पास भवन नहीं

राष्ट्रीय शिक्षण योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय यानी एनआईईपीए के 2016-17 आंकड़ों के मुताबिक बिहार में कुल 71,615 प्रारंभिक विद्यालय हैं, जिसमें कक्षा 1 से 10 तक पढ़ाई होती है, जो सीधे तौर पर बिहार शिक्षा विभाग द्वारा संचालित किया जाता है।

58.68%  प्राथमिक विद्यालय है जहां पर बच्चें प्रारंभिक ज्ञान अर्जित करते हैं। 36.73% विद्यालय ऐसे हैं जहां प्रारंभिक शिक्षा के साथ-साथ माध्यमिक शिक्षा भी दी जाती है। यानी कि बच्चों को कक्षा 1 से 8 तक पढ़ाया जाता है। महज़ 0.90% ही ऐसे विद्यालय है जहां कक्षा 1 से 12वीं तक की पढ़ाई की जाती हो।

तो वहीं सिर्फ़ 0.35% ही ऐसे विद्यालय है जहां माध्यमिक शिक्षा यानि कक्षा 6 से 8 तक की शिक्षा दी जाती हो। 0.08 फीसदी ऐसे विद्यालय हैं जहां 6 से 12वीं तक की पढ़ाई की जाती है। आंकड़ों के मुताबिक 3.05 फीसदी ही ऐसे स्कूल हैं जहां 1 से 10वीं तक पढ़ने की व्यवस्था है।

जिस वक्त बिहार में लालू यादव की पार्टी राजद की सरकार थी यानि 2002-03 में, तब तकरीबन 60% प्राथमिक विद्यालय, 13 फीसदी प्राथमिक तथा सह-माध्यमिक विद्यालयों की स्थापना की गई। 12 फीसदी ऐसे विद्यालयों की स्थापना की गई जिसमें पहली कक्षा से बारहवीं कक्षा तक की पढ़ाई हो।

लगभग 1.50 फीसदी विद्यालय माध्यमिक शिक्षा यानि कक्षा 6 से 8 तक के लिए खोले गए। इस तरह से हर स्तर पर करीब कुल 33 फीसदी विद्यालयों की स्थापना बिहार की शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए की गई थी। नीतीश कुमार ने भी 2005 के विधानसभा चुनाव प्रचार में ‘लालू एंड कंपनी’ को शिक्षा के खस्ता हालात पर पानी पी-पीकर कोसा और नीतीश कुमार सत्ता पाने में सफल हुए।

जिस मकसद से बिहार में सरकारी विद्यालयों की स्थापना आज़ादी से कुछ बरस पहले और बाद से होने लगी, हकीकत में उसको हर सत्ता ने कमोबेश दीमक की तरह चाटना शुरू कर दिया और आलम यह हुआ कि आज भी बिहार के तकरीबन 16 फीसदी प्राथमिक विद्यालयों के पास कोई भवन नहीं है। यानी 100 में 16 के पास भवन नहीं है। फिर यह विद्यालय कैसे चलता होगा? सरकार और भगवान ही जानें।

बिहार से इसके पड़ोसी राज्यों की तुलना करें तो उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा न्यूनतम है। महज़ 0.21 फीसदी ही प्राथमिक विद्यालय हैं जिसके पास भवन नहीं है। पश्चिम बंगाल में 0.12%, झारखंड (जो सन 2000, नवंबर में बिहार से अलग हुआ था) में 0.53 फीसदी विद्यालय है जिनके पास भवन नहीं हैं।

यदि हम इसकी तुलना दक्षिण भारत के कुछ राज्य व केंद्र-शासित प्रदेशों से करें जिसकी साक्षरता दर 80% है जिसमें केरल की सबसे अधिक 93.91% है, तो केरल में 0.74%, कर्णाटक में 0.03%, तमिलनाडु में 0.12%, और आंध्रप्रदेश में 0.82% प्राथमिक विद्यालय है जिनके पास भवन नहीं हैं। जबकि लक्ष्यदीप, चण्डीगढ़ और दमन एंव दीप जैसे केंद्र शासित प्रदेशों में एक भी ऐसा प्राथमिक विद्यालय नहीं है जिनके पास भवन नहीं हैं।

कमरें ही नहीं तो बच्चें कहां पढ़ें?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते नहीं थकते की शिक्षा का अधिकार हर एक को हैं और यह देश के बच्चों का संवैधानिक अधिकार भी है लेकिन इस बात पर तब पानी फिर जाता है, जब बिहार के पढ़ने वाले बच्चों को कमरा तक नसीब नहीं हो पाता हैं।

एनआईईपीए 2016-17 के आंकड़ें बताते हैं कि बिहार में बमुश्किल से औसतन हर विद्यालय के पास करीब तीन कमरे हैं। तो वहीं यू-डायस के 2015-16 के आंकड़ों के मुताबिक करीब 1500 विद्यालय हैं जो महज़ एक कमरे में चलते हैं। जबकि पूरे देश का औसत चार कमरों का है। तो वहीं बिहार के वैसे विद्यालय जिसका संचालन निजी माध्यमों से होता है, उनकी ‘चांदी’ दिखती है क्योंकि इन विद्यालयों के पास औसतन ग्यारह कमरें उपलब्ध हैं।

अक्सर यहां ऐसी तस्वीरें आम होती हैं जिसमें बच्चों को फर्श पर या पेड़ के नीचे पढ़ाया जा रहा हो लेकिन इसकी वास्तविकता तो यही है कि बिहार सरकार अपने बच्चों के लिए शिक्षा के बुनियादी ढ़ांचों को अब तक मुहैया नहीं करवा पाई है। पड़ोसी राज्यों से तुलना करें तो उत्तर-प्रदेश और पश्चिम बंगाल में औसतन प्रत्येक विद्यालय पर साढ़ें चार कमरें और झारखंड में पांच कमरें हैं।

इसकी तुलना यदि हम दक्षिण भारत के कुछ राज्यों से करें तो केरल में करीब नौ कमरें, तमिलनाडु और कर्णाटक में पांच-पांच कमरें औसतन हैं। मधुबनी जिले के झांझपट्टी आसा पंचायत में स्थित प्राथमिक विद्यालय की प्रधानाध्यापिका आरती कुमारी कहती हैं,

साल 2007 में मेरी बहाली पंचायत स्तर से हुई थी। 70-80 बच्चें विद्यालय में नामांकित हैं और हम दो टीचर हैं। एक मैं और एक सहायक शिक्षक किशोर कुमार पासवान। अब दोनों मिल बांट कर स्कूल चला लेते हैं। क्या कर सकते हैं? सरकार के कागज़ी कामों का भी बोझ रहता हैं लेकिन करना पड़ता हैं।

वब स्कूल के हालातों पर आगे कहती हैं,

स्कूल के पास 3 कमरें हैं लेकिन रसोई कक्ष नहीं हैं, तो उसको स्कूल के ही एक कमरें में बनवाते हैं। ना बाउंडरी है और ना ही बच्चों के लिए खेलने की जगह। बच्चे फर्श पर ही बैठकर पढ़ते हैं। क्या कर सकते हैं? सरकार प्राईमरी स्कूलों के लिए कोई फर्नीचर का पैसा नहीं देती हैं।

इस आधार पर कैसे बिहार के बाल अपने भविष्य को बिना भवन वाले स्कूलों में सवार पाएंगें?________________________________________________________________________________

नोट: लेखक ने अपनी यह रिपोर्ट बिहार एजुकेशन प्रोजेक्ट कॉउंसिल, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशलन प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन, और स्कूल रिपोर्ट कार्ड के आंकड़ों की मदद से तैयार की है।

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