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“महिलाओं को उनके हक की आज़ादी देने में हम कतराते क्यों हैं?”

महिलाओं की प्रतीकात्मक तस्वीर

महिलाओं की प्रतीकात्मक तस्वीर

आज अगर औरतों के मुद्दे पर कोई संवेदनशील बहस छेड़ी जाती है, तो उसकी परिणति उनके कपड़ों से आगे नहीं जा पाती। अजीब नहीं है यह? ढाई हज़ार सालों की महान सभ्यता के लोग आज भी यह निर्धारित करते फिर रहे हैं कि महिलाएं कैसे कपड़े पहने और कैसे नहीं?

नैतिकता के पहरेदार शायद नैतिकता के आईने में एकांगी दृष्टिकोण रखते हैं। वे यह नहीं जानते हैं कि वे खुद उस आईने के सामने खड़े हैं। तभी तो उनके सारे फरमान थोपे हुए से प्रतीत होते हैं, जिनमें सिर्फ औरतों की तिलांजलि दी जाती है।

यही कारण है कि सभ्यता के अलमबरदार, औरतों के कपड़ों में ही उलझकर रह जाते हैं। उन्हें तनिक भी भान नहीं कि जिस औरत जाति को निशाना बनाकर वे फरमान सुनाते हैं, उनसे ही तो वे दुनिया देखते हैं। क्या यह हास्यास्पद नहीं है कि एक आदमी की नैतिकता की कसौटी सामने वाले के व्यवहार या उसके परिधानों पर टिकी है?

भ्रूण हत्या व स्त्री-पुरुष अनुपात में गिरावट चिंता का सबब

आदमी इतना बेबस और परनियंत्रित कैसे होता गया? शायद वक्त के साथ उन्हें देर-सबेर यह समझ आ जाए और वे अपनी भूल सुधार भी कर लें, क्योंकि अब उनके खुद के फरमान ही उनके लिए आफत बनते जा रहे हैं। इसका उदाहरण है ऐसे क्षेत्रों में कन्या भ्रूण हत्या व स्त्री-पुरुष अनुपात में आ रही गिरावट।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

सवाल यह है कि एक क्षण के लिए यह मानकर इनकी भूलों को माफ भी कर दिया जाए कि ये रूढ़िवादी मनोवृत्ति से जकड़े हुए लोग हैं, किन्तु उनके लिए क्या किया जाए, जो देश की राजधानियों के हिस्सों से उभरकर आ रहे हैं। अपने ही शहर में औरतें महफूज़ क्यों नहीं हैं?

औरतों की आज़ादी से ऐतराज़ क्यों?

यह कौन सी कहानी लिखी जा रही है, जिसमें आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक चौकाचौंध के साथ-साथ शोषण की मनोवृत्ति भी अपने रूप दिखा रही है। एक ऐसा समाज, जो सामाजिक रूप से प्रगतिशीलता की ओर अग्रसर है, वहां “आधी आबादी” की ऐसी स्थिति देखकर कई सवाल खड़े होते हैं।

कहीं ना कहीं यह तस्वीर बयां कर रही है कि पुरुष जाति, तमाम बाधाओं के बावजूद औरतों की सफलता के ग्राफ से उद्विग्न हो उठे हैं। उनके अहम को ठेस पहुंच रही है, जो उनकी मानसिक विकृतियों के रूप में बाहर आ रही है। औरतों के खुलापन से क्यों ऐतराज़ है भाई?

जितनी आज़ादी आप अपने लिए तय करते हो, उतनी आज़ादी तय करने का अधिकार महिलाओं को भी है मगर यही अधिकार उन्हें देने में ना जाने क्यों हम कतराने लगते हैं। हैरतअंगेज़ है ना!

तो जनाब, अगली बार यह सोचकर सड़क पर निकलिए कि अच्छे कपड़ों के ज़रिये खुद को आधुनिक बनाने के बाद भी महिलाओं के प्रति आपका नज़रिया उनके कपड़ों में ही उलझकर तो नहीं रह जाता!

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