उत्तराखंड के अल्मोड़ा में मेरा गाँव है पोखरी। गाँव सीधे तौर पर कहूं तो मेरा गाँव पहाड़ के दर्द का प्रतीक है । यह गाँव पलायन के दर्द से वीरान, शाम होते ही तेंदुए के आतंक से घरों में दुबका, अस्पतालों के अभाव में दर्द से कराह रहा, अकसर बंजर खेती जो हाड़-तोड़ कर बचाई भी गई है लेकिन खुशहाली के संकेत नहीं देती उसकी छवि है।
हज़ारों गाँव जनसंख्या शून्य
2011 के सेंसस के अनुसार जहां 1,053 गाँव पूरी तरह जनसंख्या शून्य हो चुके थे वहीं आपदा के बाद यह संख्या 3,500 पहुंच चुकी है। अधिकतर गांव जो मेरे गांव की तरह ही जनसंख्या शून्यता की तरफ जा सकते थे, जा चुके हैं। जो अब तक भी जा नहीं पाए वह किसी तरह चले जाने की बाट जोह रहे हैं। बस कुछ ज़िद्दी भी हैं इसलिए नहीं जाएंगे।
गाँवों से पलायन इस ‘सभ्यता’ और ‘विकास’ का सच है, नियति है लेकिन वीरान, उदास, उजड़े गाँवों से घिरे शहरों के साथ कैसे खुशहाल दिखाई दे सकती है कोई सभ्यता? कैसी असभ्य ‘सभ्यता’ है यह।
गाँव से पलायन की समस्या के कई कारण है जैसे रोज़गार की कमी, पारंपरिक रोज़गार जैसे खेती-बाड़ी का दम तोड़ना आदि लेकिन इन सब कारणों का सीधा-सीधा कारण कहीं ना कहीं प्रदेश का आपदा की चपेट में होना है।
एक आपदाग्रस्त प्रदेश होने के बावजूद यहां के बाशिंदों को विकास के नाम पर छला गया। बड़े-बड़े बांधों के नाम पर जिस तरह गाँव खाली हो रहे हैं वह किस तरह के विकास की निशानी है और उस पर पहाड़ों को जो नुकसान पहुंच रहा है वह अलग।
सरकार का रवैया
आपदा से त्रस्त लोग एक तरफ जहां अपने घर-परिवार से दूर हो रहे वहीं सरकार भी उनके साथ अन्याय करने का कोई मौका नहीं छोड़ती। पिछले साल उत्तराखंड के चमोली ज़िले के चांई गांव में तेज़ बारिश के बाद भूस्खलन हुआ। जिसकी वजह से गाँव में लोगों को बहुत नुकसान हुआ।
लोग जब मदद की गुहार लगाने के लिए सरकार के पास गए तो वहां उनके साथ और घिनौना मज़ाक किया गया। जान-माल के नुकसान का मुआवज़ा दिया गया और यह मुआवज़ा था 112 रुपये, 150 रुपये और 187 रुपये के चेक।
अब खुद सोचिए कि इस तरह के मुआवज़े का एक नुकसान झेल रहा पीड़ित क्या करे। जितने का वह चेक नहीं है उससे ज़्यादा पैसे निवासियों को बैंक आने-जाने पर लग जाएगा।यहां आपदा आती रहती है लेकिन फिर भी प्रशासन का रवैया यह है।
2006 में अचानक इस गांव की ज़मीन धंसनी शुरू हो गई थी जिससे गांव के कई मकान टूट गए थे और प्रभावित ग्रामीणों को विस्थापित करना पड़ा था। स्थानीय ग्रामीण और कुछ पर्यावरण कार्यकर्ता, विष्णुप्रयाग परियोजना के लिए की गई टनलिंग को इसका दोष देते हैं और इसी तरह की परियोजनाओं की वजह से कई अन्य गाँव आपदा की चपेट में है।
पलायन रोकने के लिए लोगों की बलि
2013 की भयानक आपदा के बाद इसकी पड़ताल के लिए जो विशेषज्ञ समितियां बनाई गई थी, उन्होंने आपदा की जिन वजहों का ज़िक्र किया था उनमें से एक वजह हिमालय की शांत वादियों में लोगों की भीड़ थी।
इन रिपोर्ट्स में कहा गया था कि 16 और 17 जून 2013 को उत्तराखंड में हुई दुर्लभ प्राकृतिक घटना के भयावह आपदा बनने की वजह इतनी भारी संख्या में शांत हिमालयी क्षेत्रों में भारी संख्या में लोगों की मौजूदगी थी।
इसके बावजूद सरकार लाखों की संख्या में इन संवेदनशील इलाकों में लोगों को आने को कह रही है। जवाब में इनके पास एक रटे-रटाए बोल भी हैं कि हम इससे पहाड़ों में रोज़गार के अवसर पैदा करना चाह रहे हैं, जिससे पलायन रूके। लेकिन सवाल यह है कि जब राज्य ही नहीं रहेगा, लोग ही नहीं बचेंगे तो पलायन कौन करेगा?
पलायन रोकने के लिए लोगों की बलि देना किसी भी तरह न्यायसंगत नहीं है।
पलायन सिर्फ रोज़गार तक सीमित नहीं
2013 में उत्तराखंड की आपदा व्यापक थी, पूरा राज्य इसकी चपेट में था लेकिन पुनर्निमाण के बजट का सर्वाधिक हिस्सा महज़ केदारनाथ पर लुटा दिया गया। एक अनुमान के मुताबिक तकरीबन 13 हज़ार करोड़ जिसमें से 700 करोड़ की घोषणा तो 2017ं मे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी केदारनाथ यात्रा के दौरान की थी।
उसके अलावा, पूरे सूबे में ऐसी कई कहानियां पसरी हुई हैं जिनकी ओर सरकार और प्रशासन ने, कई सालों बाद भी आंखें मूंद रखी हैं। ऐसी स्थिति में पलायन का मुद्दा कैसे ना पनपे? पलायन को सिर्फ रोज़गार तक सीमित करके सोचना हमारा खुद को धोखा देना है।
पलायन का मुद्दा सिर्फ एक भावनात्मतक मुद्दा ना होकर जलवायु परिवर्तन, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और देश की आंतरिक सुरक्षा का मुद्दा भी है। जब तक हम इसे सिरे से नहीं समझेंगे तब तक हम सब खतरे में है।