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“मुस्लिम महिलाओं के बुर्के से शैक्षणिक संस्थानों को परेशानी क्यों है?”

मुस्लिम महिलाएं

मुस्लिम महिलाएं

रांची विश्वविद्यालय में आयोजित दीक्षांत समारोह में एक महिला जब बुर्के में डिग्री लेने पहुंची, तब उन्हें यूनिफॉर्म में आने के लिए कहा गया। महिला ने बगैर बुर्का पहने मेडल लेने से इंकार कर दिया और वापस लौट गईं।

यह किसी समुदाय विशेष के पहनावे के कारण उसे अधिकार से वंचित करने का मामला है। गौरतलब है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) ने दीक्षांत समारोह के अपने हाल के ही सर्कुलर में कहा है कि स्टूडेंट्स दीक्षांत समारोह में भारतीय परिधान पहनें।

भारतीय परिधान की कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं है। इसलिए कहीं-कही पर परंपरा के रंग कुर्ता-पजामा और साड़ी हैं, तो कहीं आधुनिकता के रंग शर्ट-पैंट, साड़ी या सलवार सूट भी स्वीकार्य हैं।

मेरा सवाल यह है कि किसी भी सामाजिक-सास्कृतिक या शैक्षणिक संस्थानों में किसी व्यक्ति विशेष के साथ परिधान के आधार पर भेदभाव करना कहां तक सही है? अगर कोई ईसाई महिला अपने परिधान में अपनी डिग्री लेने आती, तो क्या उसके साथ भी वही व्यवहार किया जाता?

फोटो साभार- Twitter

जब सिख माथे पर पगड़ी पहनकर कड़ा, कंघा और कृपाण के साथ किसी सामाजिक-सास्कृतिक और शैक्षणिक संस्थानों में शामिल होते हैं, तब तो किसी को कोई  दिक्कत नहीं होती है। फिर इन्हीं सामाजिक-सास्कृतिक और शैक्षणिक संस्थानों को मुस्लिम महिलाओं के बुर्के से समस्या क्यों होने लगती है?

मुस्लिम महिलाओं के लिए बुर्का और ईसाई महिलाओं के लिए उनका गाउन, उनके आत्म-सम्मान और आध्यात्मिक मनोभाव को अभिव्यक्त करती है। इससे सामाजिक संस्थानों को समस्या क्यों हो रही है?

सामाजिक संस्थानों को पहनावे से क्या परेशानी है?

एक खुदमुख्तार मुल्क में बुर्का पहनी एक महिला का पढ़ाई करना, डिग्री पूरी करना और अपने मन-मुताबिक आत्म-निर्भरता हासिल करना कोई आसान मंज़र नहीं है। इन चीज़ों को सामाजिक संस्थान समझने के लिए तैयार नहीं हैं। वे यह नहीं समझना चाहते हैं कि इस देश में हर महिला की समस्या एक पक्षीय नहीं, बल्कि बहुपक्षीय है जो परत-दर-परत और अधिक गहरी है।

मुस्लिम महिलाओं की प्रेरणा स्त्रोत रहीं बेगम रुकैया शेखावत हुसैन ने भी अपनी तालीम किसी स्कूल-कॉलेज और मदरसे में नहीं की है। घर में बड़े भाई ज़बीर हुसैन के सहयोग से रात में सभी घरवालों के सो जाने के बाद, मोमबत्ती की रौशनी में उन्होंने पढ़ाई की है।

बाद में उन्होंने मुस्लिम लड़कियों को शिक्षित करने के लिए स्कूल भी खोला। उन्होंने भी मुस्लिम महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए शिक्षा के महत्व को समझते हुए कभी बुर्के का विरोध नहीं किया, क्योंकि उन्हें पता था कि बुर्के का विरोध उनको मुल्लाओं से लड़वा देगा जिससे लड़कियों की तालीम के लिए वह स्कूल तक नहीं चला पाएंगी। उन्होंने इस बात को समझा कि मुस्लिम लड़कियों का शिक्षित होना अधिक ज़रूरी  है।

जेएनयू के पूर्व कुलपति ने जब मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं को नज़रअंदाज़ किया

एक बार मैं जेएनयू के पूर्व कुलपति प्रो.सुधीर कुमार सपोरी से मिलने उनके कार्यालय गया। जब मैं उनसे मिलने पहुंचा, तब तीन-चार मुस्लिम महिलाएं बुर्के में उनके चैंबर में बैठी थीं। वे यह आवेदन लेकर आई थीं कि उन सबों ने इंटर तक की समान्य पढ़ाई की है और वे आगे पढ़ना चाहती हैं, मगर परिवार में शादी का दबाव है।

उन महिलाओं ने पूर्व कुपलति से कहा, “क्या जेएनयू में इस तरह की कोई व्यवस्था है कि हमलोग प्रवेश परीक्षा गुज़र जाने के बाद भी किसी अलग प्रावधान के माध्यम से एडमिशन ले पाएं? हम पढ़ना चाहते हैं, हमारी मदद करिए। अगर हमें दाखिला नहीं मिली, तो हमारी ज़िन्दगी खत्म हो जाएगी।”

फोटो साभार- Flickr

प्रो. सपोरी ने उन्हें नामांकन के लिए जेएनयू की तरफ से मिलने वाली सुविधाओं के बारे में बताया मगर जब उन महिलाओं ने उनसे विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए यूनिवर्सिटी में दाखिले की बात कही, तब विश्वविद्यालय कानून को देखने के बाद निर्णय लेने की बात कही गई।

मेरा यह स्मरण बताता है कि किसी भी समुदाय में, जहां धार्मिक मान्यताएं अधिक कठोर और सख्त हैं, वहां महिलाओं का शिक्षित होकर आत्मनिर्भर बनना कठिन है। इस महौल में सामाजिक-सास्कृतिक और शैक्षणिक संस्थाओं का भेवभाव भरा व्यवहार उनके हौसलों को पस्त करते हुए उन प्रवृत्तियों को अधिक मज़बूत करेगा, जो महिलाओं की शिक्षा के ही पक्ष में नहीं है।

सवाल यह भी है कि मुस्लिम महिलाओं के बुर्के से शैक्षणिक संस्थानों को परेशानी क्यों है? महिलाओं की शिक्षा के मामलें में संस्थानों को उदार बनने की ज़रूरत है। खासकर उस समुदाय के साथ तो ज़रूर, जहां महिलाओं की शिक्षा के आकंड़े बेहद खराब हैं।

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