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हाशिए पर है भारत की क्षेत्रीय भाषाएं और उनका साहित्य

सभी भाषाओं को पहचान और सम्मान दिलाने के लिए एक साहित्यिक क्रांति की आवश्यकता है, जहां हिंदुस्तान के साहित्य की बात हो, वहां हिंदुस्तानी ज़ुबानों की बात ना हो तो यह अन्याय होगा।

कश्मीरी, कौशुर से लेकर तमिल तक, भारत की हर भाषा अदब के लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण है। सैकड़ों सालों से इनका साहित्यिक इतिहास फल-फूल रहा है। कई ज़ुबानों में तो हिंदी और उर्दू से भी अधिक अदब मौजूद है।

भारत की कई ज़ुबानें हज़ार सालों से भी ज़्यादा पुरानी हैं लेकिन यह दुख की बात है कि आज कल कई भाषाएं एवं उनका साहित्य हाशिए पर है। एक तो भाषाओं को पूंजीवाद और साम्प्रदायिकता की मार झेलनी पड़ रही है, ऊपर से राज्यों की नीतियां भी उन्हें पतन की ओर ले जा रही हैं। हिंदी, अंग्रेज़ी और उर्दू जैसी भाषाओं के बढ़ते असर ने भी कई क्षेत्रीय भाषाओं के महत्व को कम कर दिया है।

साहित्यिक क्रांति की आवश्यकता

इन सबके बावजूद आज भी कई ऐसे साहित्य प्रेमी हैं, जो अपने अदब से इंकलाब पैदा कर सकते हैं और यकीनन कर रहे हैं। इस बात में कोई शक नहीं है कि हमें साहित्यिक क्रांति की आवश्यकता है। हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि हर ज़ुबान की अदब को तरजीह मिल सके और बोलचाल की आम भाषा में उन भाषाओं का ज़्यादा से ज़्यादा प्रचार, प्रसार हो।

हमें यह भी सोचना होगा कि भाषाओं को उनके बोलने वालों के अलावा बाकी लोगों तक कैसे पहुंचाया जा सके तथा आर्थिक स्त्रोत में भी वृद्धि हो। इसके अलावा भारत में ऐसी अनगिनत भाषाएं हैं, जो कस्बों, सूबों और ज़िलों में बोली जाती हैं। उनको भी वैश्वीकरण की मार से बचाने की ज़रूरत है।

हम सबको एक दूसरे की भाषा का सम्मान करने की ज़रूरत है। भाषा सिर्फ बोलने का ज़रिया नहीं होती, बल्कि संस्कृति और सभ्यता के विकास का माध्यम और उनका अक्स भी होती हैं। जितनी अच्छी ज़ुबान होगी, अदब और तहज़ीब भी उतनी ही बुलंद होगी।

पुस्तकालय बुरे हालातों में

भाषा का ज्ञान आखिर किताबों से ही होता है, इसलिए पुस्तकालय में वक्त बिताना बेहद ज़रूरी है लेकिन आज कल ज़िंदगी इतनी तेज़ रफ्तार से दौड़ती है कि हम ये सारी चीज़ें ताक पर रख देते हैं। भारत में आज कल साहित्यिक रूचि घट रही है। इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के आने के बाद लोग उनमें ही व्यस्त रहने लगे हैं।

तमाम चीज़ों में दिलचस्पी खोने के कारण आज पुस्तकालय बुरे हालातों में हैं। बड़े शहरों में लोग शौकिया तौर पर पुस्तकालय जाते हैं। उनकी फीस भी काफी ज़्यादा होती है। ऐसे में आम बच्चा या कोई इंसान कैसे उन जगहों पर जा पाएगा? किताबें निसाब से ज़्यादा अव्वल होती हैं, लिहाज़ा हमें यह कोशिश करनी चाहिए कि हम हर ज़ुबान में लिखी किताबों को आम नज़र में लाए। इसके साथ ही बचपन से ही बच्चों की पुस्तकों के प्रति रुचिकर बनाएं।

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