जनाज़ा, जनाज़ा है ये किसका जनाज़ा
मुझे शहर में हर जगह बस दिखता जनाज़ा।
एक रात खामोशी में मैनें कत्ल किए थे जिनके
अभी तक निकल रहा घरों से गज़लों का जनाज़ा।
जाने क्यों लड़ पड़े हिन्दू-मुसलमान के नाम पर
मेरी डायरी में कबसे पड़ा है शब्दों का जनाज़ा।
क्या दौर था कि मिलकर रंगों से बनती थी रंगोली
अब तो बस सड़कों पर दिखता है रंगों का जनाज़ा।
राह देखते मालिक की, एक रोज़ मर गए वो भूख से
घर के कोने में कबसे पड़ा है अनाजों का जनाज़ा।
खबरों की लाशें बिखरी पड़ी हैं हर पन्नों पर
जब भी देखता हूं सुबह मैं अखबारों का जनाज़ा।
इंसान हूं ‘गौतम’ भर जातीं हैं आँखें मेरी भी हरदम
भला कैसे रोज़ कोई देख पाता है अपनों का जनाज़ा।