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“मेरे गाँव में होने वाली शादियों में आज भी दलितों को दूर रखा जाता है”

फोटो साभार- करण कुमार

फोटो साभार- करण कुमार

स्कूल में गणित के शिक्षक जब सरनेम पूछते थे, उस वक्त अंदाज़ा नहीं होता था कि वह सरनेम नहीं बल्कि मेरी जाति जानना चाहते हैं। कई दफा ऐसा हुआ है जब मास्टर साहब ने मेरी जाति जाननी चाही मगर 2-3 क्लास के बच्चे को भला जाति के बार में पता ही क्या होगा? यह बात मिश्रा जी (गणित के शिक्षक) को कौन समझाए?

आज मिश्रा जी बुज़ुर्ग हो चुके हैं और कभी-कभी जब गाँव की गलियों में दिख जाते हैं, तब उनके बारे में बस एक ही बात ज़हन में आती है और वो यह कि ऐसे लोग समाज में आ कहां से जाते हैं? खैर, जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया, वैसे-वैसे हमारे समाज में मिश्रा जी टाइप बहुत सारे लोग दिखने लगे।

इस लेख के ज़रिये मैं आपको एक घटना के बारे में बताता हूं जब वाकई में मुझे लगा था कि जातिवाद चरम पर है। मैं झारखंड के दुमका ज़िले के नोनीहाट प्रखंड के ठारी गाँव का ज़िक्र कर रहा हूं। एक ब्राह्मण के यहां शादी थी, जहां पूरे गाँव के लोगों को बुलाया गया था। मेरे घर से सिर्फ मैं ही उस शादी में शामिल होने गया था।

फोटो साभार- करन कुमार

मैंने देखा वहां एक साथ एक ही वक्त पर अलग-अलग जगहों पर टेंट लगे थे, जहां लोग भोजन ग्रहण कर रहे थे। हमें लगा कि भोजन की काफी सामग्रियां होंगी मगर जब हम नज़दीक गए तो टिलुआ (मेरे दोस्त को प्यार से हम टिलुआ बुलाते हैं) ने कहा कि बड़े पंडाल में डोम लोग खा रहे हैं, तो वहीं पीछे वाले पंडाल में चमार। मेरे द्वारा पूछे जाने पर उसने बताया कि सबसे अंतिम वाला टेंट ब्राह्मणों के लिए है जिसे दलितों के टेंट से काफी दूर रखा गया है।

यह बात सुनकर मैं हैरान रह गया क्योंकि इससे पहले ना तो इन चीज़ों से वास्ता पड़ा था और ना ही हमने कल्पना की थी कि हमारे समाज में ऐसी चीज़ें भी होती होंगी। सच पूछिए तो मैं सन्न रह गया साहब। आपको जानकर हैरानी होगी कि आज भी मेरे गाँव की शादियों में दलितों को दूर रखा जाता है।

आलम यह हुआ कि मैं और मेरे कुछ दोस्त वहां एक पल के लिए भी ना ठहरकर अपने-अपने घर चले गए। मैं रात सारी यह सोचता रहा कि आज की तारीख में एक तरफ जहां हम चांद पर जाने की बात और विश्व में अपना दबदबा बनाने जैसे दावे करते हैं, वहीं दूसरी ओर जातिवाद जैसी चीज़ें ना सिर्फ हमारे मनोबल को तोड़ती हैं बल्कि इन दावों की पोल भी खोलती है।

जातिगत भेदभाव की जो बातें मैंने आपके साथ साझा की हैं, वे ज़रूर कुछ साल पहले की बातें हैं मगर आज की तारीख में भी ऐसी चीज़ें मेरे गाँव में होती हैं। हमारे नेता अकसर दलितों के घर पर भोजन करते देखे जाते हैं और हम यह सोचते हैं कि कितना अच्छा काम कर रहे हैं हमारे नेता मगर हमें वह कड़वी सच्चाई नहीं मालूम होती है कि कैसे ये नेता हमें जाति और धर्म के नाम पर बांट रहे हैं।

मेरे गाँव में आज भी पड़ोस के बच्चे आकर मुझसे कहते हैं कि शिक्षक ने आज उनसे पूछा कि उनकी जाति क्या है? बच्चों द्वारा घर पर आकर हमें या उनके पेरेन्ट्स को ये बातें बताने का कोई फायदा नहीं होता है, क्योंकि सच में गाँव वालों को कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कौन सी जाति से आते हैं और किसने उनसे या उनके बच्चे से क्या पूछा। हमें समझना होगा कि यह भी एक प्रकार का शोषण ही है, जिसे जल्द से जल्द रोकने की ज़रूरत है।

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