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छठ पूजा प्रकृति के प्रति संवेदनशील होने की संस्कृति है

भारत त्यौहारों का देश हैं। यहां का हर दिन, पर्व का दिन रहता है। यहां के पर्व धर्म,संस्कृति और क्षेत्र के आधार पर अलग-अलग होते हैं। कई जगह लोगों के अपने-अपने स्थानीय त्योहार भी होते हैं। जैसे, पंजाब के लोगों द्वारा लोहड़ी मनाई जाती है, दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों में ब्रह्मा लक्ष्मी की पूजा की जाती है।

इसी तरह बिहार और नेपाल के साथ-साथ पूर्वी उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में छठ पूजा की परम्परा है। प्रवासी भारतीयों के द्वारा भी इसे मनाने के कारण यह पर्व भारत के अलावा विश्व के अन्य भागों में भी मनाया जाने लगा है।

यह मुख्यतः भोजपुरी भाषी लोगों द्वारा मनाया जाता है। इसलिए इस क्षेत्र के लोगों के लिए यह केवल धार्मिक त्यौहार ना होकर संस्कृति का हिस्सा हो गया है।

छठ पूजा करती महिलाएं, फोटो साभार – छठ पूजा फेसबुक पेज

कैसे मनाते हैं छठ?

छठ को वर्ष में दो बार मनाया जाता है। पहला चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है और दूसरा कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाता हैं दोनों अवसरों का छठ में अपना ही महत्व होता है। फिर भी कार्तिक माह की छठ को काफी धूम-धाम के साथ और बड़े स्तर पर मनाया जाता हैं। इसे “डाला छठ” के नाम से भी जानते हैं।

छठ शब्द, षष्ठी का अपभ्रंश है। छठ में किसी भी प्रकार की मुर्ति पूजा नहीं की जाती है। इसमें प्रकृति की पूजा, प्राकृतिक तरीकों और वस्तुओं से की जाती है। छठ में मुख्य रूप से सूर्य की आराधना की जाती है। इसमें ऊषा देवी की पूजा होती हैं, जिन्हें “छठी मईया” के नाम से जाना जाता है।

यह मुख्य रूप से किसी जल स्त्रोत के किनारे मनाया जाता है। इसलिए छठ से कुछ दिनों पहले से ही स्थानीय लोगों द्वारा अपने आस-पास के जल स्त्रोतों की सफाई की जाती है।

छठ के चार दिनों को चार भागों में मनाया जाता है

छठ की शुरुआत कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को होती है। पहला दिन “नहाय-खाए” से शुरु होता है। इस दिन व्रत करने वाले छठ घाट पर जाते हैं, वहां पर सफाई करते हैं, फिर घर लौटते समय उस जल स्त्रोत का जल अपने घर ले आते हैं।

व्रत करने वाले इस दिन केवल एक बार ही खाना खाते हैं। उस दिन कद्दू की सब्जी, मुंग-चने की दाल और चावल का उपयोग किया जाता है। इस दिन खाना कांसे या मिटटी के बर्तन में पकाया जाता है।

दूसरा दिन पंचमी तिथि को “खरना” या “लोहंडा” के रूप में मनाया जाता है। इस दिन व्रत करने वाली स्त्री तथा पुरुष सूर्यास्त से पहले ना तो पानी ग्रहण करते हैं ना ही अन्न। इसको इस प्रकार की प्रक्रिया से मनाने के कारण “हठ योग” भी कहा जाता है। इस दिन शाम को चावल गुड़ और गन्ने के रस का प्रयोग कर, खीर बनाई जाती है।

छठ पूजा का प्रसाद, फोटो साभार – छठ पूजा फेसबुक पेज

इस खाने को बनाने में नमक और चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है। इन्हीं दो चीजों को पुन: सूर्यदेव को आहुति देकर उसी घर में ‘एकान्त’ करते हैं अर्थात् एकान्त में रहकर उसे ग्रहण करते हैं।

तीसरे दिन षष्ठी तिथि को “संध्या अर्घ्य” के रूप में मनाया जाता है। इस दिन तीसरे पहर में पूजा के साजो-सामान के साथ घाट पर जाया जाता है। घाट पर जा कर व्रती के साथ सम्मिलित रूप से सब लोग पारम्परिक गीत के साथ पूजा अर्चना शुरू करते हैं। इस दिन डूबते सूरज को अर्घ्य देने के उपरांत सभी लोग फिर अपने घर पर आ जाते हैं और घर पर आकर अगले दिन की तैयारी में लग जाते हैं।

चौथे दिन सप्तमी को सूर्योदय के पहले सभी लोग फिर से घाट पर चले जाते हैं। सूर्योदय होने तक “छठी मईआ” की आराधना करते हुए पारम्परिक गीत गए जाते हैं। इस दिन उगते सूर्य को अर्घ्य देकर व्रती स्त्री तथा पुरुष द्वारा छठ घाट पर ही प्रसाद खाकर उपवास खोला जाता है और छठ पूजा पूर्ण की जाती हैं।

अंत में छठ घाट पर उपस्थित सभी लोगों को प्रसाद वितरित किया जाता है। इस प्रसाद में विभिन्न प्रकार के फल के साथ मुख्य रूप से घर पर बनी मिठाई ‘ठेकुआ’ ज़रूर होता है।

छठ से जुड़ी कथाएं

इस पर्व के बारे ऐसी कोई सत्यापित कथा नहीं है कि यह कब से प्रारम्भ हुआ था, फिर भी कुछ मतों के अनुसार माना जाता है कि सबसे पहले द्वापर युग में कर्ण ने सूर्य की आराधना की थी। तभी से आम जनों में छठ का प्रचलन हुआ।

पुराणों के अनुसार छठ की शुरुआत राजा प्रियवद से सम्बंधित है। माना जाता है कि राजा की कोई संतान नहीं थी। तब राजा प्रियवद ने देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। उसी समय से आम जनमानस में पुत्र प्राप्ति की लालसा से देवी षष्ठी की पूजा के रूप में छठ मनाया जाता है।

इससे जुड़ी एक कथा महाभारत काल की भी है। कथा के अनुसार कुंती द्वारा विवाह से पूर्व सूर्य उपासना करने से उसे कर्ण जैसे तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई थी। इस कथा को भी छठ व्रत से जोड़ा जाता है।

इसके प्रारम्भ होने की कोई निश्चितता नहीं है, फिर भी यह आज के समय में भोजपुरी भाषी लोगों की संस्कृति का हिस्सा बन गया है।

छठ पूजा करती महिला , फोटो साभार – छठ पूजा फेसबुक पेज

 प्रकृति की प्राकृतिक ढंग से पूजा

यह एक ऐसा त्यौहार है, जो लिंगभेद नहीं करता है। इसका व्रत स्त्री तथा पुरुष दोनों करते हैं। छठ में व्रत करने वाले स्त्री और पुरुषों के साथ इसे मनाने में परिवार के सभी लोग और स्थानीय लोग भी शामिल रहते हैं। छठ में मुख्य रूप से पारम्परिक और प्राकृतिक विधि-विधान से सूर्य तथा ऊषा की पूजा होती है।

इस पूजा के बारे में हम यह भी कह सकते हैं कि “यह प्रकृति की प्राकृतिक ढंग से पूजा है” और यह एक ऐसी पूजा है जो कि पर्यावरण के अनुकूल भी है। इसमें जिन-जिन साधनों का उपयोग किया जाता है, वे ज़्यादातर बांस तथा मिट्टी के ही बने होते हैं। जैसे, बांस के बने सूप और दऊरा के साथ-साथ प्रसाद बनाने के लिए मिट्टी के बर्तन का उपयोग किया जाता हैं।

अगर हम धर्म से हटकर भारत के स्थानीय और पारम्परिक त्यौहारों की बात करें तो यह पर्यावरण और संस्कृति के अनुकूल ही रहते हैं। आज अगर इनके विकृत रूप दिखते हैं तो वे इनमें धर्म और कॉर्पोरेट के छौंक लगने के बाद ही आए हैं।

छठ पूजा करता परिवार, फोटो साभार – छठ पूजा फेसबुक पेज

छठ को कुछ लोगों द्वारा हिंदुओं का त्यौहार बताकर, एक दायरे में सीमित करने की कोशिश की जा रही है लेकिन बिहार तथा अन्य जगहों पर छठ का व्रत मुसलमान समुदाय के लोगों द्वारा भी किया जाता है।

हमें अब समझ लेना चाहिए की धर्म तथा धर्म की रक्षा के नाम पर हमें अन्धा बनाने की कोशिश की जा रही है। असली ज़रुरत तो अपनी संस्कृति की रक्षा करना है।

छठ जैसे पर्व समाज और पर्यावरण के लिए ज़रुरी हैं

प्राचीन काल में भारतीय प्रायद्वीप में जो भी पूजा होती थी वह प्राकृतिक घटकों की ही होती थी लेकिन इसमें बदलते समय के साथ कुरीतियां आती गईं और कुछ लोग इन्हीं कुरीतियों के आधार पर इन पर्वों तथा संस्कृति को बदनाम करने लगे।

हमें यह समझना चाहिए कि छठ जैसे पारम्परिक पर्व समाज और पर्यावरण के लिए कितने ज़रुरी हैं। भारत भौगोलिक और सांस्कृतिक रुप से बहुत ही विभिन्नताओं वाला देश है। इसके हर भाग में अपने स्थान के आधार पर कुछ ना कुछ त्यौहार मनाए जाते हैं।

ये त्यौहार वहां की ज़रूरतों के आधार पर होते हैं। आज भी भारत के आदिवासी इलाकों में वहां के लोग अपने आस-पास के प्राकृतिक स्थानीय घटकों की पूजा करते हैं। जैसे, जंगल में रहने वाले लोग अपने जंगल को देवता मानकर पूजा करते हैं। इसी तरह पहाड़ों के लोग पहाड़ो को पूजते हैं।

इससे यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि भारत में जो भी पर्व रहे हैं वे स्थानीय ज़रूरतों के आधार पर ही रहे हैं ना कि धर्म के आडंबर के लिए। इसलिए हमें इन त्यौहारों को अपनी थाती मानकर, पाखंड तथा विकृत आधुनिकता से बचाते हुए, सहेजना चाहिए।

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