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जलवायु परिवर्तन की वजह से 2050 तक करीब 20 करोड़ लोग होंगे पलायन के लिए मजबूर

Climate Refugees

प्रवासी मज़दूर

गरीबी उन्मूलन दिवस पहली बार 1987 में फ्रांस में मनाया गया था। इसमें लगभग एक लाख लोगों ने मानवाधिकारों की मांग को लेकर प्रदर्शन किया था। इस प्रदर्शन के लगभग पांच वर्ष बाद संयुक्त राष्ट्र द्वारा 22 दिसम्बर 1992 को प्रत्येक वर्ष 17 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय गरीबी उन्मूलन दिवस मनाये जाने की घोषणा की गई। इसका उद्देश्य था, विश्व समुदाय में गरीबी दूर करने के लिए किए जा रहे प्रयासों के संबंध में जागरूकता बढ़ाना।

फोटो प्रतीकात्मक है। फोटो सोर्स- https://pixabay.com

भारत, जिसे हमेशा से ही अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ‘गरीबों और बेरोज़गारों का देश’ के टैगलाइन से नवाज़ा गया है, वहां तो पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गॉंधी ने काफी पहले ही पंचवर्षीय योजना के तहत वर्ष 1971 चुनावों के समय ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था। उनके बाद भी गाहे-बगाहे कई नेताओं और अफसरों द्वारा गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों और योजनाओं की घोषणा की जाती रही है। बावजूद इसके आज तक कमबख्त ना तो गरीबी हटी और ना गरीब। उल्टा दिन-ब-दिन इनकी संख्या में बढ़ोतरी ही हुई जा रही है।

हर किसी की इस बारे में अपनी-अपनी राय है। मेरा मानना है कि बढ़ती गरीबी, मंहगाई, बेरोज़गारी और अपराध, इन सबका एक बहुत बड़ा कारण है- जलवायु परिवर्तन। आप सोच रहे होंगे, भला यह कैसे?

आइए इस विषय पर थोड़ा गहराई से विश्लेषण करें-

तेज़ी से बिगड़ता पर्यावरण पूरी दुनिया के लिए चिंता का सबब बना हुआ है। बढ़ते प्रदूषण की वजह से दुनिया के समक्ष नई समस्याएं खड़ी होती जा रही हैं। इन्हीं में से एक है पलायन का।

पर्यावरण की वजह से हुए विस्थापन से गरीबी में वृद्धि

अब ज़रा सोचिए, अपने-अपने देशों से विस्थापित हुए ये तमाम लोग जिस किसी दूसरे देश या भू क्षेत्र में जाकर बसेंगे, उसकी पहले से भी अपनी एक निश्चित आबादी होगी। हो सकता है, इन विस्थापितों के जाने से पूर्व वे अपने पास उपलब्ध संसाधनों से अपनी आवश्यकताओं को भली-भांति पूरा कर पा रहे होंगे लेकिन अब उस संसाधन को बांटने वाले कई और भी लोग आ गए। ऐसे में उन संसाधनों की किल्लत होना स्वाभाविक है।

अब क्षेत्र सीमित है, उसकी सीमाएं सुनिश्चित हैं, भू भाग पर होने वाला उत्पादन सीमित है, तो फिर वे नए लोगों की आवश्कताओं की पूर्ति कैसे करें? मांग-उत्पादन में होने वाला यह असंतुलन निश्चित रूप से मंहगाई बढ़ायेगा। इसके साथ-साथ बेरोज़गारी भी बढ़ेगी, क्योंकि पहले जहां 100 लोगों के लिए 100 रोज़गार के मौके उपलब्ध थे, अब उस 100 रोज़गार पर दावेदारी के लिए 200 लोग आ खड़े हुए हैं। इस वजह से लोग किसी भी तरीके से उस रोज़गार को पाने का प्रयास करेंगे।

इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा। दूसरी ओर, पहले जहां एक एकड़ भूमि में होने वाले उत्पादन से 100 लोगों का पेट आसानी से भर जाता था, अब उस उत्पादन को शेयर करने के लिए 200 लोग आ गये हैं। ऐसे में संसाधनों की कमी के फलस्वरूप बढ़ती मंहगाई से निपटने के लिए उस देश के लोग कृत्रिम तरीके से अपने उत्पादन को बढ़ाने का प्रयास करेंगे, इससे प्रदूषण की संभावना बढ़ेगी, कालाबाज़ारी बढ़ेगी, बीमारियां बढेंगी। उन बीमारियों के इलाज के लिए पुन: अतिरिक्त मेडिकल संसाधन की आवश्कता पड़ेगी। फलत: भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा।

अब इस तस्वीर का दूसरा पहलू देखते हैं, अगर जलवायु की स्थिति अनुकूल होगी, तो हरेक देश अपने उपलब्ध संसाधनों का बेहतरीन इस्तेमाल कर पायेगा। जब अपने ही देश में रहते हुए समुचित मात्रा में भोजन, कपड़ा, आवास आदि मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो जायेगी, तो वे पलायन करने की बजाय अपने देश के हित और उसके विकास के बारे में सोचेंगे।

वैज्ञानिक शोधों में भी यह सिद्ध हो चुका है कि मौसम की अनुकूलता का सकारात्मक प्रभाव व्यक्ति की कार्यक्षमता और बौद्धिक विकास पर पड़ता है। वे कहते हैं ना कि- मन चंगा, तो कठौती में गंगा। अगर चारों ओर हरियाली हो, तो मन वैसे ही प्रसन्न रहता है और जब मन प्रसन्न होगा, तो व्यक्ति के कार्य निष्पादन में भी बढ़ोतरी होगी। इससे देश के विकास को बल मिलेगा। अत: मेरे विचार से हरित पर्यावरण और प्रदूषण रहित जलवायु का निर्माण करके हम अपनी कई समस्याओं से छुटकारा पा सकते हैं।

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