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गाँधीजी की पत्रकारिता ने देश को दिशा दिखाई थी

गाँधी जी का योगदान बहुआयामी और विराट रहा है। इसलिए एक बार में उन पर समग्र चर्चा संभव नहीं हो पाती है। गाँधी जी ने लोगों में स्वाधीनता की लौ उद्दीप्त करने के लिए पत्रकारिता को भी प्रमुखता से अवलंब बनाया था लेकिन इस पर बहुत कम विमर्श हुआ है। जबकि पत्रकारिता वर्तमान दौर में जिस घाट पर जा टिकी है, उसके बीच गाँधी जी की पत्रकारिता के दृष्टिकोण को समझना बहुत प्रासंगिक है।

गाँधी जी की पत्रकारिता की शुरुआत

गाँधी जी जब लंदन में थे तभी उन्हें पत्र-पत्रिकाएं आकर्षित करने लगी थीं। अन्नाहार को लेकर उनके लेख ब्रिटेन की मशहूर पत्रिका वेजीटेरियन में छपे थे। उन्होंने ब्रिटेन के कई प्रमुख समाचार पत्रों में संपादक के नाम पत्र भी भेजे लेकिन तब वे राजनैतिक विषयों को स्पर्श नहीं करते थे।शाकाहार, अध्यात्म, रीति-रिवाज, संस्कृति और समाज जैसे विषयों पर वे अपनी सम्मति भेजते थे।

इसके बाद वे दक्षिण अफ्रीका पहुंचे। उम्र थी 23 वर्ष और पेशा था वकालत। दक्षिण अफ्रीका में उन्हें प्रत्यक्ष तौर पर रंगभेद की जलालत का भुक्त भोगी होना पड़ा। जब अदालत के गोरे जज ने उन्हें पगड़ी उतार कर जिरह के लिए मजबूर कर दिया था। इसके खिलाफ उन्होंने डरबन के एक अखबार को पत्र लिखा जो ज्यों का त्यों प्रकाशित हो गया। इसका असर इतना ज़बर्दस्त था कि रातों-रात गाँधी जी अफ्रीका में रह रहे भारतीयों के हीरो बन गए।

इंडियन ओपिनीयन में घाटे के बावजूद जारी रखी पत्रकारिता

इंडियन ओपिनियन जो कि दक्षिण अफ्रीका में भारतवंशियों द्वारा संचालित अखबार था, उसकी बागडोर गाँधी जी को सौंप दी गई। शुरू में इंडियन ओपिनियन में कुछ विज्ञापन भी आ जाते थे लेकिन वे इसके खर्चे से काफी कम थे। इसलिए गाँधी जी को अपनी कमाई से इसके घाटे की पूर्ति करनी पड़ती थी।

इसके बावजूद गाँधी जी ने एकाएक घोषणा कर दी कि वे ओपिनियन में अपने रहते विज्ञापन नही छापेंगे ताकि पाठकों को उनके हित की और सामग्री दे सकें।

भारत में शुरू की पत्रकारिता

कलम की परमाणविक ऊर्जा से परिचित हो जाने के कारण भारत में आकर स्वाधीनता संग्राम में शामिल होते ही उन्होंने दो और अखबार निकाले। ये अखबार थे नवजीवन और यंग इंडिया।

उन्हें दक्षिण अफ्रीका में भी सरकार विरोधी पत्रकारिता के कारण जेल जाना पड़ा था और भारत में भी लेकिन इससे डरने की बजाय उन्होंने जेल में भी अपने अखबारों का संपादन जारी रखा।

1933 में जेल से छूटने के बाद उन्होंने हरिजन नाम से नया अखबार निकाला। उनकी अखबारी प्रस्तुति में एक बात सामान्य रही कि उन्होंने भारत में भी अपने किसी अखबार में विज्ञापन नही लिया। इसकी बजाय प्रसार शुल्क से ही उन्होंने खर्चे पूरे किए।

वर्तमान में विज्ञापनों की पत्रकारिता

आज विज्ञापनों मोह की चरम परिणति हो चुकी है। ऐसे में मीडिया की भूमिका केवल सवारी की रह गई है जिस पर बैठकर कंपनियों के प्रोडक्ट ग्राहकों के घरों में घुसपैठ करते हैं। विज्ञापनों के लिए मीडिया अपनी गरिमा और अस्मिता के साथ समझौता करने में भी जलालत महसूस नहीं करती है।

आज अखबारों में पूरा कवर पेज विज्ञापन को सौंप दिया जाता है। विज्ञापन के लिए समाचार इतने संक्षिप्त कर दिये जाते हैं कि उनका कोई अर्थ नहीं रह जाता है। इतना ही नहीं विज्ञापन आ जाने पर, महत्वपूर्ण समाचार को पूरी तरह हटा देने में भी संकोच नही किया जाता है।

गाँधी जी अपने अखबारों की लोकप्रियता बढ़ाने के लिए बहुत श्रम करते थे, बौद्धिक भी और शारीरिक भी। चाहे वह पानी के जहाज पर यात्रा कर रहें हो या ट्रेन का सफर, उनके ज़ेहन में हमेशा अखबार को टाइम से निकालने की कोशिश रहती।  इसके लिए वे निरंतर लिखते रहते थे ताकि मैटर कम ना पड़े।

उन्हें दोनों हाथों से लिखने की सिद्धि हासिल थी। इसलिए जब एक हाथ थक जाता था तो दूसरे हाथ से लिखना शुरू कर देते थे।

आज की पत्रकारिता में जुनून की कमी

पत्रकारिता एक जुनून है और जब इस भावना से ओतप्रोत लोग पत्रकारिता में होगें तभी मीडिया, देश और समाज के साथ न्याय कर पाएगी। आज रोज़गार की तलाश में ज़्यादातर युवा, अंतिम विकल्प के तौर पर जनसंचार की डिग्री, डिप्लोमा लेकर पत्रकार बन जाते हैं। उनके पास ऐसा कोई जज़्बा ना होना स्वाभाविक है। वे बेहतर वेतन और सुविधाएं जुटाने के लिए कुछ भी लिखने को हाज़िर रहते हैं।

मीडिया कारोबार को बढ़ाने के लिए वे किसी भी नैतिक लक्ष्मण रेखा को लांघने को तैयार हैं क्योंकि जब उनसे मीडिया के मालिकों को अच्छा लाभ होगा तो उनके वेतन में भी बढ़ोत्तरी हो सकेगी। इन पत्रकारों की निगाह में प्रतिबद्धता की दुहाई देने वाली पत्रकारिता सिरफिरेपन के अलावा कुछ नहीं है।

अब पत्रकारिता विश्वसनीय नहीं

गाँधी जी राजनीति को एकांगी कर्म नहीं मानते थे। उन्हें लगता था कि सकारात्मक राजनीतिक उददेश्य समाज सुधार और लोगों के चारित्रिक, अध्यात्मिक उत्थान से अभिन्न रूप से जुडे हैं इसलिए औपनिवेशिक शासन के अन्याय के खिलाफ लिखने के साथ-साथ वे खादी, सत्याग्रह, छुआछूत आदि विषयों को लेकर पत्रकारिता के माध्यम से वैचारिक अभियान चलाते थे।

आज पत्रकारिता सूचनाओं का व्यापार बनकर रह गई है। विचारों की बजाय समाचारों को इस हद तक प्रमुखता दी जा रही है कि जनचेतना के निर्माण के माध्यम चाहे समाचार पत्र हों या टीवी न्यूज चैनल, धीरे-धीरे मनोरंजन उद्योग की बदनाम पहचान में गर्क होते जा रहे हैं।

ऐसी पत्रकारिता सघन तो हो सकती है लेकिन विश्वसनीय नहीं है। अगर ज़रूरत भर की सूचनाएं ही देने का संकल्प मीडिया में निर्धारित हो जाए तो अखबारों के ज़िला संस्करण बंद करने पड़ेगें और 24 घंटे के न्यूज़ चैनल ज़्यादा से ज़्यादा हर घंटे 5 से 10 मिनट के बुलेटिन में सिमट जाएंगे।

यह ज्यादा श्रेयस्कर होगा। इससे लोगों को बौद्धिक ऊर्जा बेवजह की खबरों को पढ़ने एवं देखने में समय बर्बाद करने के बजाय इतिहास, मनोविज्ञान, आध्यात्म और समाज को जानने के बारे में खपाने का अवसर मिलेगा, जिससे उनका ज्ञान और अनुभव समृद्ध होगा साथ में सकारात्मक रूप से प्रतिबद्ध समाज का निर्माण होगा।

सोशल मीडिया पर अपनी धारणा के खिलाफ पोस्ट देखकर लोग पगलाएंगें नहीं और गाली-गलौच करने के बजाय तार्किक और तथ्यात्मक प्रतिवाद के ज़रिये समाज में आपसी संवाद को सार्थक करेगें जो कि लोकतंत्र के विकास की अपरिहार्यता है।

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